Tuesday 27 August 2013

जनविरोधी राज्य व्यवस्था की पैदाइश हैं आसाराम जैसे ठग

                                             
           अभी देश में तीन घटनाएं घटी हैं जो सत्ता के चरित्र को समझने में मदद करती हैं.मुम्बई में एक महिला फोटोग्राफर का बलात्कार हुआ.पुलिस ने बलात्कारियों के स्केच बनाए और इतने बड़े शहर में उसने चौबीस घंटे के अन्दर अपराधियों को पकड़ लिया.इसके लिए पुलिस की सराहना की जानी चाहिए. काश ऐसी तत्परता पुलिस दलित,आदिवासी,गरीब महिलाओं के साथ होने वाले यौन अपराधों में दिखाए तो स्थिति में वाकई बहुत बड़ा सुधार आ सकता है.दूसरी घटना जेएनयू के छात्र व संस्कृति कर्मी हेम मिश्रा की है. उन्हें गड़ चिरौरी से महाराष्ट्र की पुलिस ने गिरफ्तार किया है.हेम मिश्रा वामपंथी विचार से जुड़े हैं और लोगों के बीच सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से जन जागृति का माहौल बनाने की कोशिश करते हैं.पुलिस ने पहले उनकी गिरफ्तारी को गोपनीय रखने की कोशिश की और बाद में यह आरोप लगाया कि वे माओवादियों को सन्देश देने जा रहे थे.पुलिस का यह रवैया काफी मशहूर है कि गरीब जनता के हित की बात करने वाले किसी भी व्यक्ति को वह माओवादी कह कर गिरफ्तार कर सकती है.  आदिवासियों के बीच काम करने वाले गांधीवादी हिमांशु कुमार ने तमाम मामले अदालत के सामने रखे हैं जिनमें पुलिस ने मओवादिओं के नाम पर आदिवासियों का प्रताड़ित किया है.
    तीसरा मामला आसाराम का है.आसाराम जो हिन्दू संत और अपने लाखों अनुयायिओं के बीच  दिव्य पुरुष व भगवान जैसी छवि रखते हैं.उन पर अपने ही स्कूल की एक बची के साथ बलात्कार का आरोप है.उनके ऊपर यह पहला आरोप नहीं है उन पर बच्चों की ह्त्या ,ज़मीन कब्जाने के तमाम आरोप लगते रहे हैं.उनके ऊपर अहमदाबाद में 67099 वर्ग मीटर व मध्यप्रदेश में सात सौ करोड़ रूपए की ज़मीन कब्जाने का आरोप है. 2008 में उनके स्कूल से दस- ग्यारह साल के दो बच्चे गायब हुए थे बाद में अहमदाबाद में ही नदी के किनारे उनके शव बरामद हुए थे. फरवरी 2013को उनके आश्रम में चौबीस वर्षीय राहुल पचौरी नाम के एक व्यक्ति का मर्डर हुआ था . उसके बाप का आरोप था कि वह आसाराम की फर्जी दवाओं के बारे में जानकारी रखता था,इसी वजह से उसका मर्डर हुआ है.उनके तमाम उल-जलूल बयान व हरकतें समय-समय पर मीडिया में आते रहते हैं.इसके बावजूद सत्रह अगस्त को एफ़.आई.आर. दर्ज करने के बाद अभी तक आसाराम से पूछताछ तक नहीं हो सकी है. गैर जमानती धाराओं में  एफ़.आई.आर.दर्ज होने के बावजूद आसाराम की गिरफ्तारी तो दूर पूछताछ तक न होना आखिर किस तरह के लोकतंत्र की ओर इशारा करता है?
इन तीन घटनाओं से सहज ही हमारे लोकतंत्र के वास्तविक स्वरूप को पहचाना जा सकता है.हेम मिश्रा की तरह किसी भी ऐसे व्यक्ति को सरकार प्रताड़ित करती है,जो आम आदमी की आवाज हो,उसे चेतनशील बनाने का प्रयास हो या फिर सरकार के दमन के प्रति प्रतिरोध का स्वर हो.कुछ दिन पहले सरकार ने कबीर कला मंच की संस्कृति कर्मी शीतल को गिरफ्तार किया था.आदिवासी अपने हुकूक की बात करते हैं तो उन्हें माओवादी कहकर प्रताड़ित करती है.मजदूरों के बीच काम करने वाले लोगों को बिना किसी कारण के प्रताड़ित करती रहती है.
मुम्बई में पत्रकार फोटोग्राफर के साथ गैंग रेप हुआ और पुलिस ने आरोपियों के स्केच बनवाए और चौबीस घंटे में उन्हें खोज मारा.इसलिए नहीं की सरकार महिलाओं के प्रति बहुत संवेदनशील है. इसलिए कि यह मीडिया का मामला था.वर्तमान लोकतंत्र में मीडिया भी एक शक्ति केंद्र है.पीड़ित महिला इस शक्ति केंद्र की एक कर्मचारी थी.सरकार का डर था कि शीघ्र कार्रवाई नहीं हुई और मीडिया ने उसे हाईलाईट कर दिया तो उसके लिए दिसंबर माह जैसी समस्या खड़ी हो सकती है. वरना रेप और गैंग रेप तो रोज़ ही इस देश में होते हैं, हो रहे हैं. दूसरी तरफ आसाराम हैं.उनके खिलाफ न सिर्फ बलात्कार जैसा संगीन आरोप है बल्कि अरबों की ज़मीन हड़पने,उनके आश्रम में हत्याएं होने जैसे आरोप हैं और रिपोर्ट लिखाने के ग्यारह दिन बाद भी पुलिस उनसे पूछताछ करने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाई है.ऊपर से पीड़ित लड़की के घर वालों को आसाराम के आदमी धमका रहे है.उसकी वजह यह है कि आसाराम धार्मिक सत्ता के केंद्र हैं और हमारे लोकतंत्र में धार्मिक सत्ता का भी विशिष्ट स्थान है.भाजपा,शिवसेना जैसी राजनीतिक पार्टियां धार्मिक सत्ता के बूते पर ही अपनी मजबूत स्थिति बनाए हुए हैं.यह बिना वजह नहीं है कि बात बात पर बलात्कारियों को तुरंत फांसी की मांग करने वाली सुषुमा स्वराज की  पार्टी आसाराम के विरुद्ध रिपोर्ट दर्ज होते ही,उनके पक्ष में आ गयी.इतना ही नहीं,कांग्रेस भी धार्मिक सत्ता की स्थिति को पहचान रही है और आसाराम पर बहुत ही नापी-तुली और सधी हुई बात रख रही है.

यह समझने की बात है कि राज्य व्यवस्था सिर्फ पूंजीपतियों,नेताओं,नौकरशाहों को छोटे व्यापारियों को ही लूट की सुविधा नहीं देती है बल्कि धार्मिक ढोंगी पाखंडियों को भी लूट की सुविधा देती है.इसकी वजह यह नहीं है कि आसाराम के लाखों अनुयायियों से राज्य व्यवस्था डरती है,इसकी वजह यह है कि आसाराम जैसे लोग जनता को बेवकूफ बनाए रखने में राज्य व्यवस्था की सहायता करते हैं.एक व्यक्ति जो सिर्फ प्रवचन देता है है और जनता के बीच षड्यंत्र करके न सिर्फ उसका आर्थिक दोहन करता है बल्कि स्कूल चलाना,ताबीज़,धूपबत्ती,अगरबत्ती बनाने का व्यवसाय चलाना,ज़मीनों पर कब्ज़ा करना जैसे आपराधिक व व्यावसायिक कामों में संलग्न है,खरबों की दौलत उसने इकट्ठी कर रखी है और राज्य व्यवस्था उसे खुली छूट देती है.सिर्फ आसाराम ही नहीं धर्म के नाम पर एक वर्ग जनता की भावनाओं के साथ लाखों करोड़ की ठगी का धंधा चला रहा है.एक कथा वाचक लाखों रूपए कथा वाचने के लेता है,टनों सोना मंदिरों में अटा पड़ा है और राज्य व्यवस्था यह सब करने की छूट देती है. माना कि इस ठगी के धंधे में धर्म भीरु जनता सहयोग करती है लेकिन राज्य का भी कुछ दायित्व होता है. जनता तो अफीम खाना चाहती है,चरस पीना चाहती है,जुआ खेलना चाहती है,सट्टेवाजों के यहाँ लोग दूर दूर से खुद सट्टा लगाने जाते हैं फिर राज्य व्यवस्था इन पर क्यों रोक लगाती है.अगर हमारी राज्य सत्ता आम जनता के हित में काम करने वाली होती तो आसाराम और उनके जैसे लोगों की विस्तृत जांच करवाती और जनता के सामने सच्चाई रखती तो आज जनता के बीच अंधश्रद्धा का इतना विशाल और जनविरोधी कारोबार नहीं पनप रहा होता.  

Sunday 18 August 2013

भाषा के पीछे छिपता क्रूरता का असली चेहरा

      कुछ दिन पहले ऑफिस में तीन चार लोग खड़े थे.पूंजीवाद पर बात करने लगे.एक लड़का जो सिविल की तैयारी कर रहा है बोला अब न पूंजीवाद है न कम्युनिज्म अब कल्याणकारी राज्य है,वेलफेयर सोसाइटी.दिन-प्रतिदिन इस पूंजीवादी व्यवस्था की क्रूरताएं बढ़ती जा रही हैं,आम आदमी का जीना दूभर होता जा रहा है फिर ऐसा क्या हो गया कि हमारी यह क्रूर व्यवस्था कल्याणकारी हो गयी.दरअस्ल भाषा के महत्व को शासक वर्ग भली भांति समझता है.कई बार वह अपने क्रूर चेहरे को भाषा के मुखोटे के पीछे छिपाने में सफल भी हो जाता है. इसलिए जब पूंजीवाद ने अपने खूनी पंजे और तेज़ कर लिए हैं आम आदमी के शोषण के नित नए तरीके वह ईजाद कर रहा है तब वह अपने आप को कल्याणकारी राज्य कहने लगा है.
     ऐसे ही नब्बे के दशक से निजीकरण का दौर चला .यह शब्द अपने आप में इतना बदनाम हो गया निजीकरण के समर्थक भी इस शब्द को बोलने में संकोच करने लगे.इस शब्द से ऐसा भाषित होता था कि सरकारें सार्वजनिक संसाधनों को पूंजीपतियों को बाँट रही हैं यही सच था और निजीकरण शब्द इसके लिए सबसे उपयुक्त था. लेकिन इस शब्द की बदनामी को देखते हुए शासक वर्ग ने उसके लिए एक अच्छा सा शब्द खोज लिया है -P.P.P. यानी प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप.मीडिया ने जनता में यह शब्द रवां कर दिया और आज आम आदमी की जुबां पर भी निजीकरण की जगह यही शब्द रहता है.
       NGO इस भ्रष्ट व्यवस्था का एक प्रभावशाली अंग बन गया है. यूं तो जाने अनजाने हर व्यक्ति ही आज की इस भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा बनने को विवश है पर NGO राजनीति की तरह भ्रष्टाचार का एक संगठित रूप है.उसके इस स्वरूप को अब आम आदमी जानने लगा है. भाषा कैसे-कैसे अर्थ रखती है यह बात मैंने कुछ दिन पहले एक कैंटीन चलाने वाले से बात करते हुए महसूस की .इस देश में हिंदी पर अंग्रेजी को तर्जीह देने का चलन है पर NGO वाले अब अपने आप को हिंदी में समाजसेवी संगठन ,समाज सेवी  बताने को तर्जीह देने लगे हैं. अगर अंग्रेजी में ही कहना हो तो सिविल सोसाइटी कहना पसंद करते हैं .
     नीरा राडिया का मामला हमें याद होगा .हमें यह भी याद होगा कि शुरू में मीडिया में राडिया को कॉर्पोरेट दलाल कहा था पर बाद में वह उसे कॉर्पोरेट लोबिस्ट कहने लगा . इसी तरह बड़े-बड़े अपराधी नेताओं को बाहुबली कहा जाता है.
 जैसे जैसे व्यवस्था की क्रूरता बढ़ती जाएगी वैसे-वैसे वह उस क्रूरता को ढकने के लिए भाषा को मुखौटा के रूप में इस्तेमाल करती जाएगी.इसलिए भाषा पर पैनी नज़र रखने की ज़रुरत है.
    

Saturday 6 July 2013

शासक वर्ग के जनविरोधी कारनामों का नमूना है उत्तराखंड की आपदा


उत्तराखंड में आई बाढ़ से जान माल की भयंकर तबाही हुई है.दस हज़ार से अधिक लोगों के मारे जाने की संभावना है.एक लाख लोग बेघर हो गए हैं और दस लाख लोगों के प्रभावित होने की खबर है.  गढ़वाल में जान माल की काफी हानि हुई है. कुमाऊँ में पिथौरागढ़ जिले का ऊपरी हिस्सा बहुत प्रभावित हुआ है. बुरी बात यह है कि जहां केदारनाथ मंदिर टीवी चैनलों पर छाया हुआ है वहीं पिथौरागढ़ की कोई सूचना तक नहीं है. पिथौरागढ़ में मौतें भले ही कम हुई हैं पर जौलजीवी से ऊपर के इलाके में लोग हद दर्जा प्रभावित हुए हैंजौलजीवी से धारचूला करीब तीस किलोमीटर ऊपर है.जौलजीवी से दस किलोमीटर ऊपर बलुआकोट पर सड़क क्षतिग्रस्त हो गयी है और वाहन यहाँ से आगे नहीं जा पा रहे हैं.नीचे से भेजी गयी राहत सामिग्री यहाँ से आगे नहीं जा पा रही है.बलुआकोट से धारचूला तक जगह जगह सड़क टूटी हुई है.प्रशासन का रवैया ग़ैर ज़िम्मेदाराना है.नेताओं की तो बात ही छोडिए जिलाधिकारी व मुख्य चिकित्साधिकारी तक हेलिकोप्टरों से दौरे कर रहे हैं. 
      स्थिति यह है कि पंद्रह दिन से अधिक हो चुके हैं और सडकों से मलवा हटाने और उन्हें दुरुस्त करने का काम बेहद धीमा है.इसका खामियाजा आम आदमी को उठाना पड़ रहा है. टूटे रास्तों की वजह से लोग ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों पर चढ़ कर राशन आदि, अपनी ज़रुरत की चीजें बीस-पच्चीस किलोमीटर पैदल चल कर ले जा रहे हैं.जौलजीवी और धारचूला के बीच में एक गाँव है कालिका.यहाँ तीन-चार मीटर सड़क क्षतिग्रस्त हो गई है और उस पर मलबा आ गया है. पंद्रह दिन से यहाँ जेबीसी खड़ी है पर सड़क ठीक नहीं हो पाई है जबकि इसे ठीक करने में चार-पांच घंटे से ज़्यादा का समय नहीं लगेगा.इस चार मीटर सड़क की वजह से लोगों को करीब एक किलोमीटर ऊंचे पहाड़ का चक्कर लगाना पड़ रहा है.गाँव वालों ने बताया एक बुज़ुर्ग व्यक्ति अपने नाती को शाम दवा दिलवाने जा रहा था. नीचे से सीमा सड़क संगठन के व्यक्ति ने सीटी बजा दी.उसने अपने साथ वाले से कहा कि  वह बच्चा पकड़ ले उसे डर लग रहा है. उसने बच्चा दूसरे व्यक्ति को पकड़ा दिया.उसके बाद वह व्यक्ति पहाड़ से नीचे गिर गया और उसकी मौत हो गई.
    धारचूला से ऊपर बाढ़ से भयंकर तबाही हुई है. जबकि पंद्रह दिन गुज़रने के बाद भी शासन-प्रशासन का कोई व्यक्ति धारचूला से ऊपर नहीं पहुंचा है. तवाघाट से ऊपर सोवला नाम का पूरा गाँव ही बह गया जिसमें क़रीब डेढ़ सौ घर थे. जो गाँव अत्यधिक प्रभावित हुए हैं वे हैं-एलागाढ़,तवाघाट,गर्गुआ,खेला,सोसा,गुजी आदि.पूरे पिथौरागढ़ जिले में 600 घर बहने की खबर है. जबकि चार सौ मकान गिरने के कगार पर हैं और अभी भी मकानों का गिरना जारी है.जौलजीवी से ऊपर धारचूला की तरफ .जौलजीवी से मुनस्यारी तक और मुनस्यारी से थल की तरफ लगभग हर गाँव में कुछ न कुछ मकान गिरे हैं.पिथौरागढ़ के साथ जो अच्छा हुआ वह यह था कि नदी में पानी सोलह जून की रात दो बजे से बढ़ना शुरू हुआ और मकान गिरने का सिलसिला सुबह छह-सात बजे शुरू हुआ है. इस बीच लोग अपने घरों से निकल कर सुरक्षित जगह पर आ गए और उनकी जानें बच गईं.तवाघाट से ऊपर छिपला केदार घाटी में जो लोग कीड़ा जड़ी(एस्सा गेम्बू )ढूँढने गए थे उनमें से सोलह लोग वहीं मर गए. एस्सा गेम्बू कीड़े की शक्ल का एक छोटा पौधा होता है.इसे पुरुष यौन शक्तिवर्धक के रूप में उपयोग किया जाता है. यह करीब पंद्रह लाख रूपए प्रति किलो बिकता है.यहाँ के लोगों के लिए यह मुख्य आर्थिक स्रोत है.वैसे मौतों का सही आंकलन अभी होना बाकी है.        
    भारत का कस्बा धारचूला और नेपाल का जिला दार्चुला काली नदी का पुल जोड़ता है. धारचूला में आईटीबीपी के कैंप बहने के अलावा अधिक नुकसान नहीं हुआ है जबकि दार्चुला में काफी नुकसान हुआ है करीब पैंतीस दुकाने व मकान बह गए हैं.जौलजीवी से ऊपर कालिका गाँव के लोग बता रहे थे कि सामने नेपाल की तरफ दो महिलाएं धान की रोपाई कर रही थीं.तभी खेत धंसक गया और वे दोनों बह गईं.काली नदी के किनारे-किनारे भारत की तरह ही नेपाल में भी काफी नुकसान हुआ है. वहां का प्रधान मंत्री भी एक बार हेलिकॉप्टर से चक्कर लगा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर गया. 
                  इतनी बड़ी त्रासदी को शासन-प्रशासन ने जिस तरह निपटाया है वह बेहद दुखद है .पूरा उत्तराखंड आपदा संभावित क्षेत्र है .गढ़वाल में चार धाम की यात्रा के दौरान प्रति वर्ष हज़ार-दो हज़ार लोग छोटी मोटी दुर्घटनाओं में मर ही जाते हैं. आए दिन पहाड़ों पर भूस्खलन होता रहता है.आपदा प्रबंधन(डिजास्टर मैनेजमेंट) पर सरकार प्रतिवर्ष काफी बजट खर्च करती है. पर ये कैसा आपदा प्रबंधन है. पक्ष और विपक्ष के नेता मिलकर राजनीति और राजनीतिक बयानबाजी में मस्त हैं, प्रशासन को कोई चिंता नहीं है. सेना के दीवाने देश भक्त इन्टरनेट पर बैठ कर ताली बजा रहे हैं कि पंद्रह दिन में यात्रियों को निकाल कर हमारे शासक वर्ग और उसकी एजेंसियों ने कितना बड़ा कारनामा कर दिखाया है. दस हज़ार लोगों के मारे जाने,एक लाख लोगों के बेघर होने और दस लाख लोगों के इस आपदा से पीड़ित होने की खबर है और हमारी राज्य व्यवस्था पंद्रह दिन में सिर्फ फंसे हुए यात्रियों को निकाल पाई है. यह है हमारे देश का आपदा प्रबंधन.
          धारचूला के लोगों ने बताया- नीचे से चार ट्रक राहत सामिग्री आई थी और उनके बीस लोग भी थे. उन्होंने जिलाधिकारी से कहा की उन्हें यहाँ के बारे में कुछ नहीं मालूम है इस सामिग्री को बटवाने में उनकी मदद करें.इस पर जिलाधिकारी ने कहा कि वे लोग लेकर आए हैं और वे खुद ही उसे बाँटें.दरअस्ल जो काम सबसे पहले किया जाना चाहिए था वह था रास्तों को दुरुस्त करना और यह काम छः -सात दिन में ही कर लिया जाना चाहिए था. अगर सीमा सड़क संगठन के पास लोग नहीं थे तो मज़दूरी पर लोग रखे जा सकते थे.अगर ऊपर लोग नहीं थे तो नीचे से ले जाए जा सकते थे.ऊपर जेबीसी मशीन नहीं थीं तो नीचे से ले जाई जा सकती थीं.इसके लिए हज़ारों करोड़ के बजट की ज़रुरत नहीं थी. लेकिन यह तभी संभव था जब शासन-प्रशासन आम लोगों की परेशानी महसूस करे या उनके प्रति कोई ज़िम्मेदारी रखता हो.जैसे शासक वर्ग की प्राथमिकता अपनी राजनीति को दुरुस्त रखना और पूंजीपतियों की दलाली करना है,वैसे ही प्रशासन की प्राथमिकता सरकारी बजट को ठिकाने लगाना है.अगर जनता मरती है तो मरे गढ़वाल में स्थिति अधिक खतरनाक है पर कुमाऊँ के पिथौरागढ़ जिले में भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है.जौलजीवी से धारचूला की तरफ करीब चालीस गाँव इस आपदा से प्रभावित हुए हैं बीस दिन गुजरने के बाद अभी तक धारचूला के ऊपर के गाँवों से लोगों को नहीं निकाला गया है. कई जगह सड़कें मामूली सी क्षतिग्रस्त हुई हैं वे अभी तक वैसी ही पड़ी हैं जबकि उन्हें दो-चार दिन में ठीक किया जा सकता था और इससे करीब सत्तर-अस्सी हज़ार लोगों का बेहद कठिन हो चुके जीवन को थोड़ा आसान बनाया जा सकता था. लेकिन यह तभी हो सकता था जब आपदा प्रबंधन को लागू करने वाले हमारे प्रशासन की प्राथमिकता में यह होता.अभी उत्तर काशी के आपदा प्रबंधन के उप कोषाधिकारी द्वारा राहत सामिग्री को अपने घर पहुचाने की खबर थी और उन्हें निलंबित कर दिया गया है. इससे हमारी राज्य व्यवस्था की आपदा प्रबंधन की हक़ीक़त की एक झलक मिलती है.
          प्रशासन प्रभावित लोगों के मुआवज़े की खानापूर्ति में भी लगा है.जिन लोगों के मकान बह गए हैं उन्हें दो लाख रु. देने की बात की जा रही है.परन्तु जैसा की होता है,प्रशासन का पूरा जोर अधिक से अधिक कानूनी लुखड़पेच लगाकर अधिक से अधिक लोगों को इस प्रक्रिया से दूर रखना होता है. पहाड़ पर जिन लोगों के पास खाने कमाने और रहने के साधन नहीं थे उन्होंने जहां जगह मिल गई वहां अपने रहने का इंतजाम कर लिया.अब प्रशासन कह रहा है कि जिनके मकान के कागज़ नहीं होंगे उन्हें मुआवजा नहीं मिलेगा.
       ऐसा नहीं है कि यह आपदा अप्रत्याशित थी.जून  2006 में ग्लेशियरों के अध्ययन के लिए एनडी तिवारी ने एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया था जिसमें रुड़की व उत्तराखंड के बीस वैज्ञानिक व विशेषज्ञ थे. इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में कई सुझाव दिए थे जैसे-ग्लेशियरों की कड़ी निगरानी,मौसम की निगरानी के लिए एडवांस सूचना सिस्टम लगाना,तीर्थ यात्रियों की  अत्यधिक भीड़ को नियंत्रित करना आदि. उसके बाद भाजपा की सरकार आ गई.बीस अक्टूबर 2007को मुख्यमंत्री खंडूरी ने एक मीटिंग की और विशेषज्ञों के सुझावों को तर्कसंगत माना. उसके बाद रमेश पोखरियाल मुख्यमंत्री बने उन्होंने भी 2010 में इस पर एक मीटिंग की. उसके बाद फिर कांग्रेस की सरकार बनी और बहुगुणा मुख्यमंत्री बने. इस प्रकार एक के बाद एक मुख्यमंत्री बनते रहे पर किसी की भी प्राथमिकता विशेषज्ञों की रिपोर्ट को लागू करने की नहीं रही.
          शासक वर्ग की रूचि विशेषज्ञों की रिपोर्ट लागू करने में नहीं है. उनकी रूचि ऐसे कामों में है जो पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने वाले हों,उनके घर वाले,रिश्तेदार,परिचितों को ठेके दिलवाने वाले हों.पूरे उत्तराखंड में इस वक़्त क़रीब पांच सौ परियोजनाएं बाँध बनाने के लिए चल रही हैं.पहाड़ों के अन्दर विस्फोट कर-कर के सुरंगें बना रहे हैं.चार धाम यात्रा का बेतहाशा प्रचार किया जा रहा है.अकेले गौरीकुंड से केदारनाथ तक ही आठ-दस हज़ार खच्चर यात्रियों को लाने ले जाने के लिए प्रति वर्ष पहुंचते हैं.पहाड़ों पर माफिया पेड़ों की अवैध कटाई कर रहे हैं .पिथौरागढ़ से धारचूला के लिए सड़क चौड़ा करने का काम चल रहा है. धारचूला से पहले गोथी का एक दम्पति बेहद चिंतित हो कर बता रहा था कि सड़क बनाने के लिए विस्फोट करेंगे उससे उनका मकान भी हिल जाएगा. पहले पहाड़ काटकर सड़कें बनाने का काम किया जाता था. अब ड्रिल मशीन से छेद कर के उसमें विस्फोटक भर के विस्फोट कर के पहाड़ तोड़े जा रहे हैं.इससे आसपास का पहाड़ हिल जाता है और वहां का पर्यावरण भी असंतुलित होता है.अगर वहां सड़कें बनाना ज़रूरी ही है तो सरकार पहाड़ काटने की तकनीक विकसित कर सकती थी लेकिन सरकारों के पास इस तरह की बातों के बारे में सोचने का भी समय नहीं है और फिर यह सब करने से उन्हें क्या मिलेगा?हाँ पूंजीपतियों को यह पता चल जाए कि इन पहाड़ों के नीचे हीरे-जवाहरात की खान है तो सरकारें तुरंत अपना कमीशन सेट करने के बाद पहाड़ों की खुदाई का काम शुरू करा देतीं  और प्रशासन हरिद्वार व हल्द्वानी में बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगा चुका होता-देश के विकास के लिए पहाड़ों का खोदा जाना बहुत ज़रूरी है. 

                  (प्रोग्रेसिव मेडिकोज फोरम व क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन ने संयुक्त रूप से उत्तर काशी,केदारनाथ व पिथौरागढ़ स्थिति का जाइजा लेने व चिकित्सा सहायतार्थ तीन टीमें भेजीं. यह रिपोर्ट पिथौरागढ़ की टीम द्वारा तैयार की गई है. )

Wednesday 19 June 2013

विकास के कसीदों से बुनी जा रही विनाश की कहानी सन्दर्भ उत्तराखंड की तबाही



          उत्तराखंड में बाढ़ ने जीवन तहस-नहस कर दिया है.केदार घाटी बारिश और बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुई है. मित्रो से मिली जानकारी के मुताबिक़ उत्तराखंड में बेहद  दर्दनाक मंज़र है. हज़ारों लोग लापता हैं. कितनी जानें गई होंगी कुछ भी नहीं कहा जा सकता.मैं 2007-2008 में करीब डेढ़ साल गौरी कुंड में रहा. हादिसे क्यों घटते हैं और कैसे घटते हैं उसका एक उदाहरण में देता हूँ.
अगस्त 2008 में गौरी कुंड अस्पताल के निचले हिस्से में शार्ट सर्किट से भयंकर आग लगी.यह अगस्त का महीना था इसलिए कोई कैसुअल्टी नहीं हुई. अगर मई-जून होता तो पचास-सौ लोग इस घटना में मारे गए होते.मई-जून में गौरी कुंड में पैर रखने की जगह नहीं होती.जिसे जहां जगह मिलती है वहीं सो जाता है.अस्पताल भी गैलरी से लेकर चबूतरे तक पूरा भरा रहता है.मुख्य चिकित्साधिकारी को कई बार लिखा था कि अस्पताल में एम.सी.बी. खराब है और यहाँ कभी भी हादिसा हो सकता है.एक दिन स्वास्थ्य निरीक्षक गौरी कुंड आए हुए थे,केदार नाथ में जो साथी कार्यरत था उसने उनसे कहा कि वे स्वास्थ्य मंत्री वाला पैसा निकलवा दें. दरअस्ल पिछले साल जब केदारनाथ के पट खुले थे तब तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री निशंक भी आए थे और केदारनाथ में तैनात उस साथी ने उनकी टीम का खाने पीने का खर्च उठाया था. स्वास्थ्य निरीक्षक ने मुझे गुडविल में यह बात बताई कि स्वास्थ्य मानती का रुद्रप्रयाग से केदार नाथ का खर्च मुख्य चिकित्साधिकारी ने उठाया था और उसमें करीब एक लाख खर्च हुआ है. पता नहीं मुख्य चिकित्साधिकारी ने उसे सरकारी खजाने से कैसे एडजस्ट किया होगा. कितनी  बात है कि मुख्य चिकित्साधिकारी पांच सौ-हज़ार रु. के पीछे पचास-सौ लोगों की जान जाने जैसे हादिसे की भी परवा नहीं करता और स्वास्थ्य मंत्री  की सौ किलोमीटर की यात्रा पर एक लाख खर्च कर देता है. दरअस्ल शासन-प्रशासन का यही रवैया है जो आपको हर जगह दिखाई देगा .
     उत्तराखंड में विकास के नाम पर जो कुछ हो रहा है, आज के विनाश में उसका भी बहुत कुछ हाथ है. टेहरी में भारत का सबसे ऊंचा बाँध(260 मीटर) बाँध बनाया गया है जिसमें एक सौ पच्चीस गांग डूब गए. अभी उत्तराखंड में करीब पांच सौ बिजली परियोजनाओं पर काम चल रहा है.इन परियोजनाओं के अनुसार पहाड़ों में अन्दर सुरंगें बनाई जा रही हैं, उनमें टर्बाइन चलाने के लिए नदियों का पानी छोड़ा जाएगा.जब मैं गौरीकुंड में था उस समय इन पर काम चल रहा था.सुरंगें बनाने के लिए डाईनामाईट से विस्फोट किए जाते थे उसकी भयंकर आवाजें देर तक केदार घाटी में गूंजती रहती थीं. गुप्त काशी के कई मकानों में दरारें पड़ गयी थीं.
     मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि विकास नहीं होना चाहिए. उत्तराखंड बेहद खूबसूरत और पर्यावरण की दृष्टि से बेहद संवेदनशील क्षेत्र है. अगर यहाँ पर्यावरण असंतुलित किया जाएगा तो उसका असर पूरे देश पर पड़ेगा.इसलिए कुछ भी करने से पहले काफी विचार करने की ज़रुरत है.अगर सरकार के पास कोई योजना है तो पहले उसे पर्यावारंविद व तकनीक विशेषज्ञों के साथ मिल कर उसके हर पहलू पर अध्ययन कराना चाहिए, गंभीर विचार-विमर्श करने के बाद ही कोई निर्णय लेना चाहिए. पर ऐसा नहीं होता है.सरकारें अध्ययन कराना तो दूर उनकी बात को सुनती तक नहीं हैं.पिछली सरकार के एक मंत्री ने विधान सभा में कहा था-   अभी आप एक पेड़ काटेंगे तो सुन्दर लाल बहुगुणा आ जाएंगे. यह बात उन्होंने दो बार कही थी और इसके लिए उनकी काफी आलोचना हुई थी. तो यह है हमारी सरकारों का रवैया. ऊपर मैंने अस्पताल में घटी घटना और मुख्य चिकित्साधिकारी का ज़िक्र किया है, उसका तात्पर्य यह बताना था कि  शासन और प्रशासन का दृष्टिकोण अपनी कमीशनखोरी और पूंजीपतियों के हित से नियंत्रित होता है. बिजली चाहिए और फ़टाफ़ट चाहिए .उसके लिए पहाड़ों को डाइनामाईट से उड़ाना पडेगा कोई बात नहीं हम उडाएंगे.उन्हें तहस नहस करना पडेगा,हम करेंगे पर तुम्हें फ़टाफ़ट बिजली देंगे.हमारे पास इतना वक़्त नहीं है कि हम यह सोचें कि बेहतर विकल्प क्या हो सकता है. बिजली किसे चाहिए? इतनी बिजली बन रही है वह कहाँ जा रही है ?किसानों की फसलें सूख जाती हैं गाँवों में कई-कई दिन तक बिजली नहीं आती.कारखानों में कभी बिजली नहीं जाती.शहरों में पॉश इलाक़ों की तुलना स्लम कॉलोनियों से करें फिर सोचें किसे बिजली चाहिए.कोयला घोटाले में कांग्रेस कहती है पूंजीपतियों को कारखाने चलाने के लिए बिजली की ज़रुरत थी इसलिए उसने ओने पोने में कोयला लुटा दिया. भाजपा कहती है कोयला तो अभी खदानों में पडा है सरकार ने उसे फ़टाफ़ट कारखानों तक क्यों नहीं पहुंचाया. सभी पार्टियां देश का विकास करना चाहती हैं.विकास के लिए चौबीस घंटे कारखानों का कहते रहना ज़रूरी है और उसके लिए बिजली बहुत ज़रूरी है. उसके लिए सरकारों को जो करना पडेगा वे करेंगी.भले ही वह आम जनता का विनाश ही क्यों न हो.
       राजस्थान में पानी का बेतहाशा दोहन करने वाली और उसके लिए कोर्ट तक से फटकार खाने वाली कंपनी कोको कोला ने देहरादून की विकासनगर तहसील में एक विसाल प्लांट डाला है. इससे पानी के दोहन के अलावा प्लांट से निकलने वाला अपशिष्ट पहाड़ों पर क्या असर डालेगा इसकी परवा किसे है. 2008 में पर्यावरणविदों की एक रिपोर्ट आयी थी जिसमें गोमुख पर भारी मात्रा में पहुँचने वाले कावड़ियों पर चिता व्यक्त की गयी थी और बताया गया था कि इससे  के ग्लेशियर पर बुरा असर पड़ रहा है. गोमुख में अधिक मानवीय आवाजाही पर रोक लगाने की सिफारिश की गयी थी. पर उनकी कौन सुनता है.सरकारें वहां की भोलीभाली जनता में हमारी देव भूमि जैसी जड़ बातों का प्रचार कर रही हैं. वहां के लोगों के कठिन जीवन की ज़िम्मेवारियों से तो सरकारें भागती हैं और उनके अन्दर ऐसे घटिया विचारों का प्रचार करती हैं.
         चार धाम यात्रा का इतना अधिक प्रचार किया जा रहा है कि हर साल लाखों लोगों की भीड़ बढ़ जाती है. अकेले केदारनाथ में मई=जून के महीने में पच्चीस-तीस हज़ार मज़दूर यात्रियों की डोली ढोने और खच्चर चलाने का काम करते हैं. साधे तीन हज़ार मीटर की ऊंचाई पर छः महीने तक आठ दस लाख लोग और चार पांच हज़ार खच्चर वहां ग़दर मचाएंगे उससे क्या वहां के पर्यावरण पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा ? लेकिन इन सब की किसे चिंता है. 

Saturday 27 April 2013

पहले लक्ष्य तो तय करें



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          दिसम्बर में हुए बलात्कार के बाद देशभर में भारी प्रदर्शन हुए थे.सरकार ने एंटी रेप क़ानून बनाने के लिए जस्टिस वर्मा कमेटी का गठन कर दिया और मामला शांत हो गया.जितने बड़े स्तर पर ये प्रदर्शन हुए और जिस क़दर लोगों में गुस्सा था उससे एक उम्मीद बंधी थी कि शायाद इस लड़ाई के कुछ बेहतर परिणाम निकलेंगे लेकिन ऐसा नहीं हो सका.कहने को कहा जा सकता है कि एंटी रेप क़ानून में सख्त सजाओं का प्रावधान है और ये इस संघर्ष की उपलब्धि है. लेकिन ऐसा नहीं लगता कि इन कानूनों के बन जाने से  या बलात्कार के लिए सबसे कड़ा कानून फांसी की सज़ा जैसा क़ानून बन जाने से बलात्कार की घटनाओं में कोई  कमी आएगी. अपराध रोकने में क़ानून की अपनी भूमिका होती है परन्तु सिर्फ सख्त से सख्त क़ानून बना देने से कोई अपराध नहीं रुक सकता. अगर कोइ अपराध समाज में बढ़ रहा है तो इसका मतलब है कि समाज में कुछ ऐसी परिस्थितियाँ हैं जो उस अपराध के कारणों को बढ़ावा दे रही हैं और जब तक वे परिस्थितियाँ नहीं बदलेंगी सख्त से सख्त क़ानून उस अपराध को रोकना तो दूर उसे कम करने में भी सहायक नहीं हो सकता.
       सिर्फ यह कह देने से भी बलात्कार जैसा अपराध नहीं रुक जाता कि समाज को अपनी मानसिकता बदलनी पड़ेगी.जब तक कि आप उन कारणों को नहीं बदलोगे जिन पर समाज की यह मानसिकता टिकी है. समाज का सामंती वातावरण बचपन से ही लड़का लड़की के बीच तरह तरह के पूर्वाग्रह पैदाकर देता है,वहीं समाज में सामाजिकता और रचनात्मकता एक तरह से समाप्त सी होती जा रही हैं. एक तरफ जीविका के संसाधन बहुसंख्यक जनता के लिए कठिन होते जा रहे हैं तो दूसरी तरफ छोटे से वर्ग में पैसे ने ऐशो-अय्याशी की विकृत प्रवृत्तियाँ विकसित की हैं.इन सब ने मिलकर समाज को बेहद कुंठित बना दिया है.ये कुंठाएं कुछ लोगों में मानसिक विकृतियों का रूप धारण कर लेती हैं और वे विकृतियाँ बलात्कार के रूप में प्रदर्शित होती हैं. इसलिए बिना सामाजिक ढाँचे को बदले इस तरह की धटनाओं को रोकना संभव नहीं है.  जहां देश की सामाजिक व्यवस्था समस्याग्रस्त है वहीं क़ानून व्यवस्था भी लचर है.ऐसे में मध्यम  वर्ग के एक बड़े हिस्से को यही लगता है कि फांसी की सज़ा से बलात्कार रुक जाएगा. यही लोग हैं जो कहते हैं कि देश डेमोक्रेसी के लायक नहीं है तानाशाही आ जाए तो सब सुधर जाएगा.दरअस्ल यह समझने की बात है कि हर अपराध के कारण एक जैसे नहीं होते.एक चैनल पर मैंने एक पूर्व पुलिस अधिकारी को यह कहते सुना कि  पुलिस अधिकारियों में इच्छा शक्ति की कमी है.उनमें के.पी.एस.गिल जैसी इच्छा शक्ति होनी चाहिए.बलात्कार पंजाब के आतंकवाद जैसी समस्या नहीं है. और न उसे इस तरह के दमन से समाप्त किया जा सकता है. यह ऐसी भी समस्या नहीं है कि कॉलेज की गुंडा गर्दी से होते हुए कुछ छात्र गली मुहल्लों में हफ्ता वसूली करने लगते हैं और पुलिस अपना हिस्सा वसूल कर उन्हें पालती पोसती रहती है.बलात्कार की समस्या  हमारे समाज की आतंरिक बुनावट से जुडी है.कई सारे कारक उससे जुड़े हैं. समाज का सामंती ढांचा मुख्य कारक है तो मीडिया,दूर-संचार,फ़िल्में,बचपन से ही स्त्री-पुरुष के बीच के पूर्वाग्रह, फर्जी नैतिक दबाबों व जीवन के वास्तविक व्यवहार के बीच के अन्तर्विरोध इस समस्या को बेहद जटिल बना देते हैं. लगातार बढ़ती सामाजिक समस्याएँ कुंठाओं को जन्म देती हैं और कुंठाओं से मानसिक विकृतियाँ पैदा होती हैं.इस तरह समस्या समाज के  आतंरिक ढाँचे में पूरी तरह समा जाती है.और इस तरह किसी भी उम्र की महिला घर से लेकर थाने तक कहीं भी सुरक्षित नहीं है.ऐसी समस्या को लोग फांसी का क़ानून बना कर या पंजाब की समस्या की तरह दमनात्मक तरीके से हल करने की बात कर रहे हैं.
     यों दुधमुंही बच्चियों से लेकर बुजुर्ग महिला तक और छेड़छाड़ से लेकर बेहद क्रूर तरीके से किए गए बलात्कार तक तमाम घटनाएं रोज़ घट रही हैं परन्तु दिल्ली की दो घटनाओं के मीडिया में चर्चित हो जाने से लोगों का दबा हुआ गुस्सा इन घटनाओं में फूट पड़ा है. इन दोनों मामलों में मीडिया का आम लोगों के आक्रोश को फैलाने में अच्छा सहयोग रहा पर टीआरपी बटोरने के बाद उसने पूरे मुद्दे को वहीं लाकर खड़ा कर दिया.भीड़ में से चार पांच लोगों को इकट्ठा कर पहले उसके संवाददाता डिमोस्ट्रेशन देते हैं कि जनता फांसी से कम कुछ भी मानने को तैयार नहीं है फिर अपनी ही बात उन लोगों से कहलवाते हैं.हमें याद होगा कि मीडिया ने जनता के आक्रोश को किस तरह अठारह साल से कम उम्र के आरोपी को फांसी लगवाने की मुहिम में तब्दील कर दिया. अब वही मीडिया ऐसी बहस चला रहा है कि बलात्कारियों ने ऐसा करने से पहले शराब पी थी और पोर्न देखी थी थी.स्वाभाविक है अब सारी बहस पोर्न पर आ कर टिक जाएगी.
          इसके बावजूद मेरा मानना है कि इस तरह की घटना अगर मीडिया में फैलती है और लोगों का आक्रोश उन्हें घटना के विरुद्ध सड़कों पर लाता लाता है तो न सिर्फ उसका समर्थन किया जाना चाहिए बल्कि जितना संभव हो सके उसमें सहयोग भी किया जाना चाहिए. यह आवाज़ उठानी चाहिए कि सिर्फ कुछ चुने हुए मामलों में ही नहीं गरीब,दलित व आदिवासी महिलाओं के साथ जो उत्पीडन व बलात्कार की घटनाएं हो रही हैं दबंगों व प्रशासन द्वारा उन्हें दबा दिया जाता है उनके विरुद्ध भी आवाज़ उठाई जानी चाहिए.पूरे समाज को तो रातों रात नहीं बदला जा सकता परन्तु सख्त क़ानून व फांसी फांसी चिल्लाने के बजाय कुछ जाइज मांगे उठाई जाएं तो बेहतर होगा.जैसे देश में जिन  नेताओँ व अधिकारियों पर ऐसे आरोप लगे हैं उन्हें फ़ास्ट ट्रेक पर डालकर तीन महीनों के अन्दर उनका निस्तारण करना चाहिए ताकि जनता में यह सन्देश जाए कि सक्षम लोगों के लिए भी देश में क़ानून है. पुलिस व कोर्ट की जवाबदेही सुनिश्चित की जानी चाहिए. और उनके विरुद्ध कड़े क़ानून बनाए जाने चाहिए. सिर्फ महिला थाने बनाने से समस्या हल नहीं हो जाती. कोई भी महिला अपने आप को पहले पुलिस वाली ही मानती है और वे सारे गुण उसके चरित्र में भी होते हैं जो पुरुष पुलिस के चरित्र में होते हैं. सरकार को तुरंत मनोरोग विशेषज्ञ,मनोविश्लेषक,कानूनविद  व समाजशास्त्रियों की एक कमेटी का गठन करना चाहिए जो बलात्कार के कारणों व उसके समाधान पर विस्तृत रिपोर्ट तैयार करें.जो ngo महिलासशाक्तिकरण पर काम कर रहे हैं उनको मिलाने वाले फंड व उनके काम की विस्तृत समीक्षा होनी चाहिए.

Wednesday 31 August 2011

अन्ना आंदोलन के सबक


अन्ना और उनकी सिविल सोसाइटी द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ा गया आंदोलन कुछ समझौतों के साथ लोकपाल बिल पर बनी सहमति के साथ समाप्त हो गया. इस आंदोलन के निहितार्थ जो भी हों पर एक बात स्पष्ट है कि इस तथाकथित आंदोलन ने उन लोगों को काफ़ी कुछ सोचने का मौका दिया जो समाज में परिवर्तन चाहते हैं. इस दमनकारी व्यवस्था को बदलना चाहते हैं.
इस आंदोलन के समर्थन में जो तर्क दिए गए उन पर विचार करना समीचीन होगा. लोगों का मानना है कि यह एक राष्ट्रीय आंदोलन था. जनता के हक़ में लड़ी गई एक लड़ाई थी. राष्ट्रीय स्तर पर जो जन आक्रोश देखा गया है उसने बेहतर समाज का सपना देखने वालों के दिल में एक उम्मीद जगा दी है कि जो मध्य वर्ग समाज के बारे में कभी कुछ नहीं सोचता वह किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर इकट्ठा हो सकता है और ज़रूरत पड़ने पर सड़क पर उतर सकता है. कुछ लोग इस आंदोलन से इस लिए भी बहुत आशान्वित हैं कि उनका मानना है लंबे समय से जनता में कोई आंदोलन खड़ा नहीं हुआ है और यह आंदोलन इस जड़ता को तोड़ेगा और समाज में जनांदोलनों के लिए ज़मीन तैयार करेगा. कुछ आशावादी लोगों को तो इससे भी अधिक ऐसी उम्मीद थी कि जनाक्रोश उभर आया है और संभव है कि आंदोलनकारी भ्रष्टाचार से आगे अपनी माँग रखेंगे और संभव है यह वास्तव में राष्ट्रीय आंदोलन का रूप ले सकता है.
इस आंदोलन के मूल्यांकन में जिन बिंदुओं पर मैं विचार करूँगा वे हैं - इसका नेतृत्व, आंदोलन के सहयोगी, आंदोलनकारी जनता, वे परिस्थितीयां जिन्होंने आंदोलन को जन्म दिया और आंदोलन में अपनाई गई रणनीति , इस आंदोलन के सबक विशेषकर प्रगतिशील लोगों के लिए.
किसी भी आंदोलन के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि उसका नेतृत्व किन हाथों में है. छोटे से लेकर विशाल आंदोलनों तक का इतिहास बताता है कि अगर आंदोलन का नेतृत्व सही हाथों में न हो तो आंदोलन कभी अपनी सही परिणति तक नहीं पहुँच सकता. ट्रेड यूनियन द्वारा किए जाने वाले तमाम आंदोलनों के बारे में ऐसी धारणा बनती रही है कि नेतृत्व मेनेजमेंट के हाथों बिक जाता है. आंदोलन, नेतृत्व की मंशा में खोट या नेतृत्व की समझ में कमी के कारण असफल होते रहे हैं.
अन्ना का आंदोलन का नेतृत्व जो लोग कर रहे हैं उन पर नज़र डालने से पता चलता है कि आंदोलन का नेतृत्व जन पक्षधर लोगों के हाथ में नहीं रहा है. अन्ना को इस आंदोलन का सबसे बड़ा आदर्श के रूप में पेश किया गया है लेकिन अन्ना की कोई राजनीतिक या सामाजिक समझ है ऐसा नहीं लगता. वे लोकपाल के माध्यम से भ्रष्टाचार समाप्त करने की बात कर रहे हैं पर उन्हें यह भी नहीं पता है कि समाजिक व राजनीति व्यवस्था की मूल में भ्रष्टाचार कैसे समाया हुआ है, कानून अपना काम कैसे करते हैं और वे भ्रष्टाचार को रोकने में क्यों असफल रहते हैं.
दर-अस्ल अन्ना के पिछले इतिहास से पता चलता है कि अन्ना गाँव में मुखिया-प्रधान स्तर के नेता रहे हैं और उन्होंने वैसे ही सामंती किस्म के सुधार अपने गाँव रालेगाँव सिद्धि में किए हैं(The Making of Anna Hazare,www.kafila.org पर मुकुल शर्मा ने इस गाँव के अध्ययन पर विस्तार से रिपोर्ट दी है), वे एक RTI एक्टिविस्ट रहे हैं. और महाराष्ट्र सरकार के कुछ मंत्रियों के खिलाफ़ सूचनाएं इकट्ठी कर उनके खिलाफ़ भ्रष्टाचार की जाँच करवाने जैसी लड़ाइयां उन्होंने लड़ी हैं. लेकिन समाज से भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए ज़रूरी है आपको समाज और राजनीति का समुचित ज्ञान हो, कानून के असफल रहने का ज्ञान हो. लोकपाल के लिए अनशन पर बैठना है इसके अलावा अन्ना के पास न तो आंदोलन चलाने की कोई रणनीति थी और न समाज और राजनीति का कोई ज्ञान. आज तक किसी ने अन्ना के विचार कहीं पढ़े हों कि वे समाज में क्या करना चाहते हैं. बस हवा में भ्रष्टाचार समाप्त करना चाहते हैं.
दर-अस्ल इस पूरे ताम झाम में अन्ना का इस्तेमाल तो एक प्रतीक के रूप में किया गया है. इसका असल नेतृत्व तो तथाकथित सिविल सोसाइटी रही है. यों इस सिविल सोसाइटी में मेधा पाटेकर जैसे कुछ सामाजिक कार्यकर्ता भी जुड़े रहे हैं परंतु जो मुख्यतः नेतृत्व की भूमिका में रहे हैं उनकी मंशा और और चरित्र को लेकर विचारणीय सवाल उठते रहे हैं. मुख्य नेतृत्व कर्ता अरविंद केजरीवाल ने पिछले 3 साल में अकेले फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन से ही 4 लाख डॉलर लिए हैं और तमाम अन्य कंपनियों से वे अपने NGO को करोडों रुपए लेते हैं. दूसरे नेतृत्वकारी लोगों में भी अधिकांशतः इसी तरह NGO से जुड़े लोग हैं जिनका ऐसा इतिहास भी नहीं रहा है कि वे समाज के हित में सोचने वाले लोग हैं. फिर मीडिआ के सामने NGOs को लोकपाल के दाइरे में लाने के सवाल पर केजरीवाल व प्रशांत भूषण की जो प्रतिक्रिया रही वह इस आशंका को सही सिद्ध करती है कि अपने आपको सिविल सोसाइटी कहने वाले NGO चलाने वाले ये लोग, जो लोकपाल के नाम पर भ्रष्टाचार खत्म करने की बात कर रहे हैं वास्तव में NGOs और कॉर्पोरेट के हितों के बारे में सोचने वाले लोग हैं.
इस आंदोलन में सिविल सोसाइटी के अलावा प्रमुख भूमिका निभाई मीडिआ और भाजपा ने. अप्रेल में जब अनशन शुरू हुआ था तब से लेकर अब तक मीडिआ ने जिस तरह की भूमिका निभाई है वह आश्चर्यचकित करने वाली है. अप्रेल के 3 दिन के अनशन को आज़ादी के बाद की सबसे बड़ी लड़ाई और अगस्त के अनशन को आज़ादी की दूसरी लड़ाई मीडिआ ने प्रचारित किया है. सच तो यह है कि जो कॉर्पोरेट मीडिआ आम जनता की हमेशा अनदेखी करता है उसने इस आंदोलन को लांच करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस आंदोलन के सबसे बड़े सहयोगी R.S.S और भाजपा रहे हैं. अब तो यह भी स्पष्ट हो गया कि रामलीला मैदान में भीड़ के लिए खाने का सामान जुटाने में
R.S.S के संगठन सक्रिय रहे हैं. अखबारों में खबरें आई हैं कि ABVP ने ज़बर्दस्ती स्कूल- कॉलेज बंद करा कर आंदोलन के रूप में भीड़ उपलब्ध कराई है. देशभर में भाजपा कार्यकर्ता सक्रिय रहे और अखबारों की ख़बरों से भी इस बात की पुष्टि आसानी से हो जाती है. ऐसा संभव है कि पहले से केजरीवाल और भाजपा में इस मुद्दे पर बात हुई होगी कि रामलीला मैदान में जुटने वाली भीड़ कैसे मेनेज करनी है. कुछ लोगों को लग सकता है कि आंदोलन से राजनीतिक फ़ाइदा उठाने के लिए भाजपा इस आंदोलन से जुड़ गई होगी. पर ऐसा नहीं है. जिस तरह का तालमेल शुरू से सिविल सोसाइटी और भाजपा के बीच रहा है और भाजपा एवं R.S.S ने सड़कों पर भीड़ जुटाने में मदद की है उससे लगता है कि सब कुछ पूर्व निर्धारित रणनीति के तहत था और यह बात इस आंदोलन पर सवाल खड़े करती है. यह स्पष्ट है कि भाजपा का भ्रष्टाचार या लोकपाल से कुछ लेना देना नहीं है. उसने अपने शासन काल में वह बिल भी पास नहीं किया जिसे जोकपाल कहा जा रहा है. अनशन तुड़वाने के वक़्त बुलाई गई सर्व दलीय बैथक में उसने अपना रुख स्पष्ट कर दिया जो कॉग्रेस से भिन्न नहीं था. गुजरात में मोदी लोकपाल की नियुक्ति के विरुद्ध कोर्ट के चक्कर काट रहे हैं. इतना सब होने के बावजूद भाजपा ने आंदोलन को इतना सहयोग क्यों किया? क्या इसलिए कि उसे पता था कि इस आंदोलन कि अंतिम परिणति क्या है, और अंततः यह शासक वर्गीय हितों के खिलाफ़ नहीं जाएगा.
यह बात ठीक है कि भाजपा कार्यकर्ताओं का भीड़ जुटाने में काफ़ी योगदान था फ़िर भी इस संपूर्ण भीड़ और उसके समर्थकों पर विस्तार से बात करना उचित होगा. रामलीला मैदान में जो भीड़ जुटी, देशभर के विभिन्न कस्बों व शहरों में लोग सड़कों पर देखे गए, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर लोगों ने आंदोलन का समर्थन किया तो क्या वास्तव में समाज का इतना बड़ा वर्ग भ्रष्टाचार समाप्त करना चहता है? यह मुद्दा उसकी प्राथमिकता में था. सवाल यह भी उठता है कि क्या यह जनांदोलन था? जैसा कि कुछ बुद्धिजीवी भीड़ को देख कर कह रहे हैं कि भ्रष्टाचार को लेकर जनता में ज़बर्दस्त आक्रोश है और यह जनांदोलन उसकी अभिव्यक्ति है. अगर यह जनाक्रोश था तो यह कैसा आक्रोश था जो अन्ना की अनशन के साथ पैदा हुआ और अन्ना के अनशन तोड़ने के साथ ही पटाखे छुड़ाते हुए दीवाली मनाते हुए बुझ गया. इतना नियंत्रित जनाक्रोश कि लाखों की संख्या में लोग सड़कों पर उतर आएं और 12 दिन उत्सव सा मना कर, पटाखे छुड़ा कर घर चले जाएं, न आक्रोश का कोई लक्षण 16 से पहले दिखाई दे और न 28 के बाद. इस बीच ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जनाक्रोश को हटाने वाला हो. अन्ना की यह ज़िद कि प्रधानमंत्री व उच्च न्यायपालिका को लोकपाल के दाइरे में लाओ और उन्होंने वह ज़िद छोड़ दी, अनशन खत्म हुआ सरकार, सरकारी की जगह गैर सरकारी(NGO) लोकपाल पेश करने पर राजी हो गई. एक स्थानीय मुद्दे पर जनता में जनाक्रोश भड़क जाए तो प्रशासन के हाथ- पैर फूल जाते हैं और पूरे देश में लाखों लोगों में जनाक्रोश भड़का हुआ हो, जनता सड़कों पर हो, आक्रोश का कोई चिह्न न 16 से पहले और न 27 के बाद दिखाई दे, इतने विशाल राष्ट्र व्यापी जनाक्रोश की इतनी उत्सवी और नियंत्रित अभिव्यक्ति शायद इतिहास में न मिले.
यह सच है कि 90 बे बाद जिस तरह आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ उससे पूँजी की लूट हुई है वहीं मध्य वर्ग की स्थितियों में कुछ बदलाव भी आए हैं. पर विश्व अर्थ व्यवस्था के महामंदी में फँसने का असर मार्केट पर पड़ा है और चारों तरफ़ बढ़ती मँहगाई व सरकार द्वारा हर महीने पेट्रौल की क़ीमत बढ़ा देने से सबसे अधिक मध्य वर्ग प्रभावित हुआ है. जैसी कि मध्य वर्ग की प्रवृत्ति होती है जिसे गाड़ी की ज़रूरत नहीं है फिर भी अगर नई नहीं ले पा रहा तो किस्तों पर पुरानी गाड़ी ही खरीद रहा है, दूसरे तरह के चोचले भी उसकी जीवन परिस्थितियों को कठिन बना रहे हैं. ऐसे में दिन पर दिन बढ़ती मँहगाई स्वाभाविक रूप से उसमें गुस्सा को बढ़ावा देती है. लेकिन यह गुस्सा कठिन होती जीवन परिस्थितियों से पैदा हुआ गुस्सा है. यह गुस्सा किसी सामाजिक बदलाव को लेकर नहीं है और 12 दिन चले अनशन के साथ बिना कुछ हासिल हुए पटाखों के साथ दीवाली मनाते हुए शांत भी हो गया. और न इस वर्ग की संघर्ष को आगे ले जाने की प्रवृत्ति है. जिस तरह लोग मोटरसाइकिलों से भीड़ की शक्ल में निकलते थे उससे तीन गुने लोग तमाशाई के रूप में उन्हें देख रहे होते थे. रामलीला मैदान में शराब पीकर जो हुड़दंग हुआ, BBC पर लंपटपन की जो खबरें छपी वे इतनी छोटी बात होतीं तो केजरीवाल को मीडिआ में यह स्पष्टीकरण नहीं देना पड़ता कि ये लोग आंदोलन का हिस्सा नहीं हैं. ये सारे लक्षण एक मध्य वर्गीय जनांदोलन को नहीं एक मध्य वर्गीय भीड़ को प्रदर्शित करते हैं.
दलित विमर्शकार इस आंदोलान को सवर्ण इलिट लोगों का आंदोलान कह रहे हैं उसकी वजह यह है कि RSS के साथ सवर्ण वर्ग जुड़ा है और इसमें एक वर्ग जो बेहद कुंठित है और उसके मन में दलित व आरक्षण के प्रति गहरी नफ़रत है. इस वर्ग ने इंडिया अंगेस्ट करप्शन के फेसबुक पेज से लेकर विभिन्न मंचों से आरक्षण का विरोध किया ओबीसी व दलितों को गालियां दीं. एक तरह से उन्होंने यह प्रदर्शित करना चाहा कि दलित समाज का उभरना ही भ्रष्टाचार है.
भाजपा और NGOs ने यह किया कि मध्य वर्ग के इस गुस्सा को मीडिआ के साथ मिलकर बहुत कुशलता से मेनेज कर लिया. और जितनी उसे ज़रूरत थी उतना उसे यूज कर लिया. उसने टेक्नोलोजी का उपयोग करते हुए लोगों को मिस कॉल मारने की सहूलियत उपलब्ध कराई. फिर उस न. पर भावुक किस्म के मेसेज भेजे. जैसे- भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाना है, भ्रष्टाचारी अब बच नहीं सकते, 74 वर्षीय अन्ना आपके बच्चों के लिए लड़ रहे हैं. अगर आज नहीं जागे तो बहुत देर हो जाएगी, अन्ना आपके लिए इतना कर रहे हैं और आप उनके लिए सड़क पर नहीं आ सकते, आदि-आदि. लोगों को नैतिक अपराधबोध सा भी हुआ कि अन्ना इतना कर रहे हैं और हम एक मिस कॉल भी नहीं मार सकते. और इस तरह एक श्रंखला सी बनती चली गई. इसका प्रभाव यह हुआ कि जिन लोगों की वजह से ही इस समाज में भ्रष्टाचार है वे भी मिस कॉल मार रहे थे और टोपी पहनकर यह चिल्ला रहे थे मैं अन्ना हूँ.
जो लोग यह मान रहे हैं कि इस आंदोलन ने देश में जनांदोलनों की ज़मीन तैयार की है, जो बड़े बड़े नेता नहीं कर पाए वह 74 वर्षीय अन्ना ने कर दिखाया या इससे जनता की राजनीतिक चेतना का विकास हुआ है वे लोग इस बात को समझने से इंकार करना चाहते हैं कि जनांदोलन या सामाजिक बदलाव का कोई विज्ञान भी होता है.इस देश में कोई भी व्यक्ति अन्ना बन सकता है अगर पूँजीपति वर्ग उसे अन्ना बनाना चाहे, अपना मीडिआ पूरी तरह उसकी सेवा में लगा दे. सिर्फ़ 3 दिन के अनशन के लिए 82.87668 लाख रु. हाथों हाथ इकट्ठे कर दे. जो लोग इस जनांदोलन से सीखने की बात कर रहे हैं, उन्हें समझना चाहिए कि जो अन्ना कुछ लोगों में सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में जाने जाते थे वे सिर्फ़ 3 दिन की अनशन में देश के महानायक सिद्ध कर दिए गए, केजरीवाल और उनकी NGO टीम कभी जनता के बीच नहीं गई और सिर्फ़ मोबाइल मेसेज के द्वारा ही उसने 16 अगस्त की सुबह राष्ट्र व्यापी जनांदोलन शुरू कर दिया और उसी के आह्वान पर आंदोलनकारी जनता ढोल नगाड़े बजाती हुई घर लौट गई. जो लोग यह कह रहे हैं कि इससे जनता की राजनीतिक चेतना का विकास हुआ है तो उन्हें समझना चाहिए कि हर आंदोलन जनता की राजनीतिक चेतना विकसित नहीं करता है, वैसे ही जैसे मंदिर आंदोलन ने जनता की चेतना पर प्रति गामी असर डाला जिससे बाहर आने में उसे 10 साल लगे. जनता की चेतना को विकसित करना नेतृत्व का कार्यभार होता है. इसी लिए आंदोलन शुरू होने से लेकर अंत तक पर्चे बाँटना, पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित करना, पुस्तकें उपलब्ध कराना जनांदोलन का अभिन्न हिस्सा होते हैं. इस जनांदोलन में अॅग्रेजी में एक बिल ड्राफ़्ट करने के अलावा नेतृत्वकारी NGOs ने क्या किया? किरण बेदी, केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और प्रशांत भूषण ये चार इस आंदोलन के मुख्य नेतृत्वकर्ता हैं. किरण बेदी, केजरीवाल और मनीष सिसोदिया के NGO करोडो रु. कंपनियों से लेते हैं. शांति भूषण पर सस्ते में सरकारी फ़्लैट कब्जाने के आरोप थे, अब यह भी सिद्ध हो गया है कि मुलायम और अमर सिंह के साथ उनकी बातचीत की सीडी सही है जिसमें वे सभी जजों के भ्रष्ट होने की बात कर रहे हैं और कह रहे हैं उनका पुत्र प्रशांत भूषण जजों को मेनेज कर लेगा. लोग इस भ्रष्ट सिविल सोसाइटी के बारे में बात नहीं कर रहे हैं और फ़ेसबुक पर एक चित्र डाउनलोड करके उसके नीचे लिख रहे हैं कि केजरीवाल और सिसोदिया आंदोलन के समय प्लेटफॉर्म पर सोए और ऐसा उनके जैसे महन त्यागी ही कर सकते हैं.
इस तरह देखा जाए तो इस आंदोलन ने लोगों में भावुक आदर्श, अतार्किक राष्ट्रवादी बातों को बढ़ावा देकर प्रतिगामी आंदोलन का काम किया है.