Saturday 18 June 2011

गांधीवादी आंदोलन की सीमाएं

पिछले दो महीनों में तीन घटनाएं विशेष रूप से सामने आई हैं. पहली 5 अप्रेल को अन्ना हज़ारे द्वारा शुरू किया अनशन, दूसरी 5 जून से बाबा रामदेव द्वारा शुरू किया गया अनशन और तीसरी गंगा में किए जा रहे खनन को लेकर भूख हड़ताल पर बैठे संत निगमानंद की 115 दिनों के अनशन के बाद मौत.
इन तीनों घटनाओं का उद्देश्य भूख हड़ताल द्वारा सत्ता को अपनी माँगे मनवाने के लिए मजबूर करना था. इन तीनो घटनाओं से जो महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकलते हैं उन पर विचार करते हैं -
अन्ना हज़ारे ने लोकपाल बिल के लिए अनशन किया. सरकार ने अन्ना की माँग मानते हुए लोकपाल बिल के लिए ड्राफ्टिंग कमेटी का गठन कर अन्ना की अनशन तुड़वा दी.
दूसरी घटना में बाबा रामदेव ने 5 जून को रामलीला मैदान में विदेश से काला धन वापस लाने के लिए अनशन शुरू किया. रात को दिल्ली पुलिस ने रामलीला मैदान में जुटी भीड़ पर आँसू गैस के गोले दागे, लाठियां बरसाईं और बाबा रामदेव को पकड़ कर हरिद्वार खदेड़ दिया.
तीसरी घटना में संत निगमानंद, गंगा नदी में अवैध खनन के विरुद्ध 19 फरवरी 2011 से हरिद्वार में भूख हड़ताल पर बैठे थे 27 अप्रेल को उनकी हालत खराब हुई और वे जौलीग्राण्ट में भर्ती कराए गए. अंततः उन्होने 115 दिन भूख हड़ताल पर रहते हुए 13 जून 2011 को अपने प्राण त्याग दिए.
अन्ना हज़ारे की अनशन के बाद जैसे शासक वर्ग में जोश की एक लहर दौड़ पड़ी थी. कॉर्पोरेट मीडिया ने इस अनशन को आज़ादी के बाद की सबसे बड़ी लड़ाई तो किसी ने आज़ादी की दूसरी लड़ाई कहा. सबसे ज़ोरदार तरीके से जो बात कही गई वह यह कि ये गांधीवाद की बहुत बड़ी जीत है. गांधीवाद की बहुत बड़ी जीत बता कर उसका ज़बरदस्त महिमा मंडन भी कराया गया .
दर अस्ल गांधीवाद के रूप में शासक वर्ग के हाथ में एक ऐसा हथियार लग गया है जिस के द्वारा उसे हर जनांदोलन को कुचलने की सहूलियत मिल जाती है. जब भी जनता में सत्ता वर्ग को लेकर कोई आक्रोश फूटता है शासक वर्ग गांधीवाद की दुहाई देकर उसे दबाने की कोशिश करता है. आश्चर्य की बात नहीं है कि दुनिया के क्रूरतम देश अमेरिका का राष्ट्रपति गांधीवाद को श्रेठ विकल्प घोषित करता है और अपने आपको गांधीवादी बताता है. इसलिए अन्ना हज़ारे की अनशन को शासक वर्ग ने ज़ोरदार तरीके से गांधीवाद की जीत के रूप में स्थापित किया तो इस में आश्चर्य की बात नहीं है.
अब अन्य दोनों घटनाओ पर नज़र डालिए. अन्ना, रामदेव और निगमानंद तीनों की राजनीति, उद्देश्य व मन्शा में फ़र्क हो सकता है लेकिन तीनों ने लड़ाई की जो शैली अपनाई वह एक जैसी यानी गांधीवादी ही थी. फिर तीनों की अंतिम परिणति में इतना अंतर क्यों आया? अन्ना के आंदोलन को शासक वर्ग ने हाथों हाथ लिया और उसके महिमा मंडन में मीडिया ने सारी हदें तोड़ दीं. पूँजीपतियों ने उसे प्रायोजित किया(अन्ना के 4 दिन के आंदोलन के लिए कुल 8287668 रु. जुटाए गए. उनमें से अकेले जिंदल एल्युमिनियम ने 25 लाख व सुरेंद्र पाल नामक उद्योगपति ने 16 लाख रु. दिए) खुद सरकार ने आंदोलन को पुलिस व प्रशासन द्वारा सुरक्षा प्रदान की. दूसरी ओर उसी तरह अनशन पर बैठे रामदेव पर प्रशासन ने आँसू गैस छोड़ी, लाठियां भांजी और उन्हे दिल्ली से उठाकर हरिद्वार खदेड़ दिया. उसी तरह गंगा में अवैध खनन रोकने के लिए 4 महीने से भूख हड़ताल पर बैठे निगमानंद की सरकार ने बात तक न पूछी और उनकी जान ले ली. इसी तरह मणिपुर की इरोम शर्मिला हैं जो सरकार के एक क्रूर कानून को हटाने की माँग को लेकर 2000 से भूख हड़ताल पर बैठी हैं और सरकार उनकी कोई बात नहीं पूछ रही. इससे एक बात सिद्ध होती है. अगर आप गांधीवादी तरीक़े से कोई आंदोलन चला रहे हैं तो उसकी सफलता या असफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उससे सत्ता वर्ग के निजी हित कितने प्रभावित होते हैं और वह शासक वर्ग के सामने कितनी चुनौती खड़ी कर पाता है. दर अस्ल शासक वर्ग को गाँधीवादी शैली के जनांदोलनों से कोई डर नहीं होता. वह व्यापक जनाधार से डरता है. उसे हमेशा यह डर रहता है कि यदि उसकी माँगे नहीं मानी तो जनता हिंसा पर उतर सकती है और उसके सामने बड़ी चुनौती पेश कर सकती है. अगर उसे इस बात का खतरा न हो तो कोई सालों भूख हड़ताल पर बैठा रहे या उससे उसकी मौत ही क्यों न हो जाए सत्ता वर्ग पर इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता. इरोम शर्मिला और संत निगमानंद सहित ऐसे तमाम उदाहरण मौजूद हैं .
दूसरी तरफ़ अनशन पर बैठे रामदेव को सरकार 24 घंटे भी नहीं झेल सकी. 20 हज़ार लोगों की भीड़ साथ होते हुए भी सरकार ने उसका दमन करते हुए रामदेव को दिल्ली से बाहर खदेड़ दिया. बहुत से लोग सोच रहे हैं कॉग्रेस ऐसा कर के अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रही है पर ऐसा लगता नहीं. दर अस्ल कॉग्रेस की रणनीति स्पष्ट है. उसे पता है रामदेव अन्ना नहीं हैं. 10 साल में उन्होनें जो अकूत संपत्ति इकट्ठी की है वह सब सफ़ेद नहीं है. भले ही रामदेव ट्रस्ट जैसे कनून का फ़ाइदा उठा ले जाएं पर कॉग्रेस जनती है अगर जाँच कराई जाएगी तो सब कुछ रामदेव के पक्ष में ही नहीं जाएगा. और अंततः वह जनता के बीच रामदेव की भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई की न सिर्फ़ पोल खोल देगी बल्कि यह भी साबित कर देगी कि रामदेव ख़ुद उससे अलग नहीं हैं. दूसरे वह जानती थी कि रामदेव के साथ जो 20 हज़ार जनता इकट्ठी हुई है यह आंदोलन करने वाली जनता नहीं है. इसे थोड़े से बल प्रयोग से खदेड़ा जा सकता है. तीसरे कॉग्रेस को पता था कि भले ही अन्ना का इस्तेमाल राजनीतिक अपने अपने तरीके से करना चाहते हों पर स्वयं अन्ना की कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है जबकि रामदेव की राजनीतिक महत्वाकांक्षा न सिर्फ़ कॉग्रेस के लिए चुनौती खड़ी कर सकती है बल्कि बीजेपी रामदेव के साथ जो रणनीति बुन रही है अगर वह उसमें सफल हो गई तो बीजेपी रामदेव के साथ मिलकर कोई हिंदूवादी लहर पैदा कर उसके लिए राजनीतिक खतरा न पैदा कर दे. इसलिए इससे पहले कि रामलीला मैदान में किसी राजनीतिक रामलीला का मंच तैयार होता कॉग्रेस ने उसे 12 घंटे के अंदर ही तितर वितर कर दिया.
जहाँ तक निगमानंद या इरोम शर्मिला का मामला है सत्ता वर्ग को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता. एक निगमानंद क्या हज़ार निगमानंद ऐसे अनशन कर के प्राण दे दें उसे उससे कोई लेना देना नहीं है. इस लिए जनता को किसी भुलावे में नहीं रहना चाहिए. और सत्ता वर्ग के गांधीवादी हथियार की सच्चाई को समझना चाहिए.

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