Friday 19 August 2011

अन्ना का आंदोलन


16 अगस्त को अन्ना के अनशन के साथ भ्रष्टाचार के फ़िलाफ़ अन्ना और उनकी सिविल सोसाइटी का दूसरे दौर का आंदोलन शुरू हो गया. इस दूसरे दौर के आंदोलन को अभी 48 घंटे हुए हैं और इन 48 घंटों में जो कुछ घटा है वह इस आंदोलन पर कई दृष्टिकोणों से सोचने को मजबूर करता है.
जैसा कि कहा जा रहा है कि यह आंदोलन राष्ट्रीय आंदोलन का रूप ले चुका है, क्या यह सही है? अगर सरसरी तौर पर मीडिया रिपोर्टों को देखा जाए तो यह सही लगता है परंतु गौर से देखेंगे तो बात स्पष्ट हो जाएगी. आंदोलन किसी मुद्दे पर होता है और जब देश की बहुसंख्यक जनता मुद्दे से सहमत होती है व लोग प्रतिरोध के लिए बग़ावत पर उतर आते हैं तो हम उसे राष्ट्रीय आंदोलन कहते हैं. भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बहुसंख्यक जनता में आक्रोश है पर यह कहना कि देश भर में जनता सड़कों पर उतर आई है जल्दवाजी होगी. दिल्ली में भीड़ - भाड़ है पर निश्चित तौर पर यह कहना कि यह आंदोलन में टिकने वाली भीड़ है ठीक नहीं होगा. रामदेव के साथ कम भीड़ नहीं थी पर वह एक दिन भी नहीं टिक पाई. देश भर में अन्ना के समर्थन में जो प्रदर्शन हुए हैं उन्हें समझा जा सकता है. 2-3 कस्बों में मैंने भी देखा है. 20-25 लोग सड़कों पर नारे लगाते हुए चलते हैं, 25-50 लोग उन्हें घेरे तमाशा देख रहे होते हैं, मीडिआ बताता है कि सैकडो लोग सड़कों पर आए. कहीं - कहीं वास्तव में सैकडों लोगों की भीड़ जुटी है. लेकिन इन ख़बरों का वह हिस्सा महत्वपूर्ण है जिनमें बताया गया है भाजपा या सपा के किन किन नेताओं ने गिरफ़्तारी दी. उत्तरी भारत के राज्यों की यही हक़ीकत है. महाराष्ट्र, मुंबई वगैरह में इंडिया अगेन्स्ट करप्शन आदि सक्रिय हैं. यह कहा जा सकता है कि जैसे भी हो देशभर में लोग सड़कों पर तो उतर ही आए. ठीक है. लेकिन हम यह क्यों भूल रहे हैं कि जो पार्टिया अन्ना के आंदोलन से जुड़ी हैं वे भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए नहीं अपने राजनीतिक फ़ाइदे के लिए जुड़ी हैं. फिर हम यह क्यों नहीं मन लेते कि भाजपा का हर शहर में इतना तो आधार है ही कि वह 1000-2000 लोग इकट्ठा कर सके. भाजपा चुनाव प्रचार के लिए ही अन्ना के साथ मैदान में आई है तो हम इन्हें चुनावी रैलियां ही क्यों नहीं मान लेते. इस बात को ऐसे भी समझा जा सकता है कि अगर भाजपा ने पूरे देश में यह आंदोलन इंप्लांट नहीं किया होता तो क्या देशभर में इसी तरह प्रदर्शन देखने को मिलते? इस तरह देखा जाए तो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर तो यह राष्ट्रीय आंदोलन नहीं लगता. यह तो हुई आंदोलन के स्वरूप की बात. अब हम देखते हैं कि ऐसा व्यक्ति जो बेहतर समाज के निर्माण के बारे में सोचता है उसे क्या करना चाहिए? किसी भी आंदोलन का समर्थन या विरोध करने से पहले क्या यह सोचना ज़रूरी नहीं है कि उसका स्वरूप क्या है, इस आंदोलन से नेतृत्व किन लोगों के हाथ में है, यह आंदोलन भ्रष्टाचार मुक्त भारत के निर्माण की बात कर रहा है और वह भी एक लोकपाल के जरिए यानी फिर एक धोखे की टट्टी खड़ी तो नहीं की जा रही ?
मैं मानता हूँ बहुत से सज्जन पुरुष इस आंदोलन का समर्थन भाजपा की राजनीति के लिए नहीं कर रहे हैं बल्कि वे सच में भ्रष्टाचार के विरोध में हैं. कुछ लोग इस उम्मीद में इस आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं कि क्या पता कल को आंदोलन का दाइरा इतना बढ़ जाए कि वह एक सच्चे आंदोलन का रूप धर ले और समाज में कुछ सार्थक परिवर्तन आ जाए. जैसे पिछले 2 दिनों से आनंद प्रधान की सक्रियता फ़ेसबुक पर काफ़ी बढ़ गई है और वे आंदोलन को बहुत ही आशा भरी नज़रों से देख रहे हैं और समर्थन के लिए बार बार अपील कर रहे हैं. उनका आज का एक स्टेटस- धीरे धीरे इस आंदोलन का दाइरा फैल रहा है. इस में छात्र नौजवानों के साथ निम्न मध्यम वर्गीय तबके भी शामिल हो रहे हैं. कल को यह और व्यापक हो सकता है, इसका दाइरा भी और मुद्दे भी.'
इसी आधार पर तरह तरह के तर्क इस आंदोलन का समर्थन करने के लिए लोग दे रहे हैं. कुछ लोगों का तर्क है कि वे एक सही मुद्दे का समर्थन कर रहे हैं, कुछ लोगों का तर्क है कि वे न अन्ना के साथ हैं न भाजपा के, वे भ्रष्टाचार के खिलाफ़ है और वे कह रहे हैं कि अन्ना से असहमति हो सकती हैं परंतु यह समय भ्रष्टाचार के खिलाफ़ खड़े होने का है और हमें अन्ना या भाजपा के बारे में न सोचकर भ्रष्टाचार के खिलाफ़ सड़्क पर उतर आना चाहिए. ये लोग उन लोगों से अधिक चतुर बनने की कोशिश कर रहे हैं जिनका मानना है कि भ्रष्टाचार इस व्यवस्था के मूल में है और व्यवस्था में आमूल परिवर्तन किए बिना भ्रष्टाचार से नहीं लड़ा जा सकता. एक तरह से वे यह कहना चाह रहे हैं कि व्यवस्था की बात छोड़िए और हमारे साथ लोकपाल के लिए सड़्क पर उतर आइए. जो कहना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार एक वाज़िब मुद्दा है और उसका समाधान लोकपाल है.
लोकपाल इस व्यवस्था में भ्रष्टाचार से नहीं लड़ सकता यह तो दूर की बात है अन्ना का लोकपाल तो इतना सलेक्टिव है कि जो प्रत्यक्षः सबसे बड़ा भ्रष्टाचार दिखाई दे रहा है वे उस पर बात ही नहीं करते. वे बार-बार 2 G की बात कर रहे हैं. इस घोटाले में कॉर्पोरेट, राडिया और मीडिआ के अंतर्संबंधों का जो खुलासा हुआ है वे उनकी बात नहीं कर रहे. उनकी सिविल सोसाइटी भी उनकी बात नहीं कर रही. पौने दो लाख करोड़ का घोटाला जिसमें ए. राजा को कितना मिला होगा? हद से हद 1%. बाक़ी 99% कॉर्पोरेट, राडिया और मीडिआ ने पचाया. 1% को लोकपाल के दाइरे में लाने की माँग कर रहे हैं और 99%के बारे में कुछ बोल ही नहीं रहे. टाटा और राडिया के टेप लीक हुए. बताया जता है टाटा राडिया को लॉबिंग के लिए प्रति वर्ष 60 करोड देते थे. (17.12.10 हिंदुस्तान टाइंस) और राडिया क्या करती थी? वह टाटा के लिए सरकार, नौकरशाह यानी जहाँ ज़रूरत होती थी वहाँ साठ गाँठ करती थी. लेकिन अन्ना की नज़र में यह सब भ्रष्टाचार नहीं है. और आप कह रहे हैं भ्रष्टाचार एक वाज़िब मुद्दा है आप सड़क पर उतर आइए.
ऊपर मैंने आनंद प्रधान का फेसबुक स्टेटस कोट किया है. उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए भी ऐसा सोचने का कोई आधार मुझे नज़र नहीं आता कि धीरे-धीरे आंदोलन, इसका दाइरा और मुद्दे व्यापक हो सकते हैं . दर अस्ल अरब देशों में जो उथल पुथल मची है उससे भारत में भी लोगों में उम्मीद बँधी है कि कुछ नहीं तो लोकपाल के नाम पर क्रांति हो सकती है. हमें समझना चाहिए कि हर देश की परिस्थितियां अलग होती हैं. मिस्र में 30 साल से हुस्नी मुबारक़ की तानाशाही थी . लोगों की जीवन परिस्थितियां बदतर हालत में पहुँच गई तो उनका आक्रोश फूट पड़ा कि इस तानाशाही को ख़त्म करना है और मिस्र में मुबारक़ चौक बन गया.
हम किसके लिए आंदोलन चला रहे हैं? लोकपाल के लिए. जब 5 अप्रेल को अन्ना अनशन पर बैठे तो 3 दिन बाद सरकार ने कह दिया ठीक है सिविल सोसाइटी को भी ड्राफ़्टिंग कमेटी में शामिल किए लेते हैं. मीडिआ ने 3 दिन की इस अनशन को आज़ादी के बाद की सबसे बड़ी लड़ाई , आज़ादी की दूसरी लड़ाई वगैरह वगैरह बताया. अन्ना ने 16 अगस्त की डैड लाइन दे दी. 4 महीने हमने वैस्ट इंडीज और इंग्लेंड के ख़िलाफ़ क्रिकेट देख के काट लिए. जब अन्ना वादानुसार ठीक 16 अगस्त को अनशन करने आ गए तो हम भी क्रांति करने आ गए. आगे क्या होगा? कॉग्रेस 4-6-10 दिन तेल देखेगी तेल की धार देखेगी. उसके बाद उसे कोई न कोई समाधान निकालना ही है. मान लो उसने कह दिया अंततः कौन सा बिल देना है उस पर एक बार फ़िर विचार कर लेते हैं. अन्ना फिर गाँधी जयंती की डैड लाइन दे देंगे. तब तक आप भारत - इंग्लैंड के बाक़ी मैच देखिए. कॉग्रेस ने उसके बाद बीच का कोई रास्ता निकाल लिया तो फिर क्रांति का प्रोग्राम तब तक के लिए स्थगत करना पडेगा जब तक संसद में बहस नहीं हो जाती है. मान लो बहस के बाद कैसा भी लोकपाल आ गया. तो अन्ना कि सिविल सोसाइटी के अरविंद केजरीवाल और किरन बेदी अन्ना को समझा देंगे कि देखिए लोकपाल आ गया, सूचना के अधिकार से 10 साल कट गए, आर्थिक उदारीकरण के बाद आम आदमी के हालात तेज़ी से खराब हो रहे हैं. लोक्पाल से 10 साल नहीं कटने वाले. 4-6 साल आराम कर लीजिए उसके बाद फिर क्रांति करनी ही पड़ेगी. इस बीच हमारा नाम नोबुल बोबुल के लिए नोमिनेटिड हो जाएगा तब तब हम अपने एन.जी.ओ चलाते हैं.
काँग्रेस में इस समय जिस तरह के नेता हैं उस आधार पर मान लो उसने ज़िद पकड ली कि वह अपना ही लूटपाल लाएगी तो( वैसे वह इतनी मूर्ख भी नहीं है). सुषमा स्वराज व अरुण जेटली को तो अन्ना के गिरफ़्तार होते ही इमर्जेन्सी दिखाई देने लगी और जनता पार्टी की तरह अपनी सरकार बनती नज़र आ रही. मान लो भाजपा की सरकार बन ही गई तो. तो लोकपाल तो लाना ही है. वह भी काँग्रेस वाला लोकपाल ले आएगी.(लोकपाल बिल उसके पहले शासन काल में रखा गया था पर उसने माना कहाँ था). अन्ना को समझा देगी कि भूल गए, मैं अन्ना हूँ वाली टोपी पहनाकर हमने ही आपके आंदोलन को राष्ट्रीय आंदोलन बनाया था. तब हो सकता है काँग्रेस अन्ना को ऑफर करे. खैर यह तो मेरी कल्पना है काँग्रेस ऐसा होने नहीं देगी.
इस पूरे आंदोलन में काँग्रेस, बीजेपी, अन्ना, सिविल सोसाइटी सबके अपने हित जुड़े हुए हैं पर ये कम्युनिस्ट क्यों अब्दुला दीवाने हुए जा रहे हैं ? दर अस्ल उन्हें क्रांति करने की आदत पड़ गई है. कोशिश की थी पर सफ़ल नहीं हुए अगर आर.एस.एस व बीजेपी भ्रष्टाचार पर ऐसा आंदोलन खड़ा कर ले जाती तो हो सकता है वे उनके साथ भी क्रांति करने आ जाते. वैसे यह आंदोलन भी उन्ही का है.
दर अस्ल वे बुर्जुआ को बेवकूफ़ समझते हैं. कॉर्पोरेट मीडिआ आंदोलन को हिट करने में जुटा है. पूँजीपतियों ने अन्ना के 3 दिन के आंदोलन के लिए 82.87668 लाख(उनमें से 25 लाख अकेले जिंदल ने दिए हैं) रु. (Times of India 14.04.11) इसी लिए दिए थे कि आओ भैया हमने तान दिए तंबू अब तुम आराम से क्रांति करो और कर दो लागू अपना मेनिफ़ेस्टो.

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