Sunday 21 August 2011

अन्ना का आंदोलन और नेतृत्व का सवाल


16 अगस्त को अन्ना अनशन पर बैठे और सरकार ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया. उसके बाद देश भर में प्रदर्शनों का दौर शुरू हुआ. हालांकि इन प्रदर्शनों में मुख्य भूमिका भाजपा की है, तथापि काँग्रेस को छोड़कर अन्य राजनीतिक पार्टियां भी इसमें हिस्सा ले रही हैं. आप उ. प्र., राजिस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली, बिहार यानी कहीं की भी ख़बरें देखेंगे भाजपा कार्यकर्ता इन प्रदर्शनों को सफल बना रहे हैं. ऐसे में कुछ लोग लगातार यह कह रहे हैं कि यह समय न तो अन्ना से सहमत- असहमत होने का है और न यह सोचने का है कि कौन आंदोलन से जुड़ा है. बस भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ सड़क पर उतर आने का है. आंदोलन के समर्थन की अपील करने वालों में कुछ वे लोग भी हैं जिन्हें लगता है कि यह आंदोलन मिस्र के तहरीर चौक की तरह किसी बड़े जनांदोलन में बदल सकता है.
जैसा कि हम जानते हैं कि अन्ना और उनकी सिविल सोसाइटी की लड़ाई भ्रष्टाचार रोकने के लिए एक कानून बनाने से शुरू हुई है और हद से हद उस कानून यानी लोकपाल के निर्माण तक जा सकती है. लोग लोकपाल के निर्माण को ही आज़ादी की दूसरी लड़ाई , व्यवस्था परिवर्तन वगैरह मान रहे हैं तो इस बात को समझने की ज़रूरत है.
अगर यह एक कानून के निर्माण की लड़ाई है तो हमें बरीकी से यह समझना होगा कि क्या यह कानून वास्तव में भ्रष्टाचार को निर्मूल कर देगा या जनता का जीवन दूभर बनाती जा रही इस व्यवस्था में राजनीतिक दलों के विरुद्ध जो आक्रोश बढ़ रहा था उसे सोखने का काम करेगा.
पहले जनता का ध्यान दूभर होती जीवन परिस्थितियों से हटाकर यह बताया गया कि पूरी व्यवस्था आकण्ठ भ्रष्टाचार में डूबी है, भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा है और उसे समाप्त करने की ज़रूरत है. फिर यह बताया गया कि इस भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए लोकपाल की ज़रूरत है. अंत में जब लोकपाल बिल पास हो जाएगा तो मीडिआ को इस बात का जश्न मनाने में सुविधा होगी कि यह पूँजीवाद के इतिहास की सबसे बड़ी जीत है, एक भ्रष्ट व्यवस्था को बदल कर पूँजीवाद की अब तक की सबसे बड़ी क्रांति की जा चुकी है. जो प्रगतिशील बुद्धिजीवी व्यवस्था से जुड़े हैं और कुछ कुछ समझते हैं कि ऐसे कानूनों से भ्रष्टाचार नहीं मिटता है वे इस जश्न को ऐसे मनाएंगे कि भले ही कोई व्यवस्था परिवर्तन न हुआ हो पर यह जनता की बहुत बड़ी जीत है आज जनता ने अपने अधिकारों की एक महत्वपूर्ण लड़ाई जीत ली है. इसलिए इस पर बहुत बारीकी से विचार करने की ज़रूरत है कि लोकपाल बिल के नाम पर जनता को मूर्ख बनाया जा रहा है. भ्रष्टाचार इस व्यवस्था की जड़ में समाया हुआ है और जो इस व्यवस्था में परिवर्तन किए बिना कानून बनाकर भ्रष्टाचार समाप्त करने की बात कर रहे हैं वे जनता को मूर्ख बना रहे हैं. दूसरी बात यह समझने की है कि अन्ना और उनकी टीम NGOs और कॉर्पोरेट जो इस व्यवस्था में सबसे भ्रष्ट क्षेत्र हैं उन्हें लोकपाल के दाइरे में लाने की बात न कर के उनका बचाव कर रही है.
इस तथाकथित आंदोलन को लेकर जो सबसे महत्वपूर्ण विचारणीय बात है वह है इसका नेतृत्व.
इतिहास गवाह है कि किसी भी लड़ाई का नेतृत्व अगर गलत लोगों के हाथ में होगा तो वह कभी सही मुकाम तक नहीं पहुँच सकती. जनता जीतकर भी हार जाती है. रशियन क्रांति में अंत तक आते आते कम्युनिस्ट पार्टी में फूट पड़ गई और वह बोलशविक और मेन्सविक में बॅट गई. बोलशविक जीत गए और रूस में समाजवाद की स्थापना हुई. अगर मेन्सविक जीत जाते तो जनता जीत कर भी हार जाती.
अन्ना और उनकी सिविल सोसाइटी पर एक नज़र डालने से ही यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि इस प्रायोजित आंदोलन का असली मक्सद क्या है और वे कौन लोग हैं जो इसका नेतृत्व सॅभाले हुए हैं. इस पूरी सिविल सोसाइटी में ज़्यादातर NGOs चलाने वाले लोग शामिल है जो अपने हितों के लिए NGO चलाते हैं उन्हें पूँजीपति अरबों रुपए फंड में देते हैं. इनकी ऐसी पृष्टभूमी भी नहीं है कि उन्होने कभी समाज या जनता के बारे में सोचा हो, जनता में कोई आंदोलन खड़ा किया हो फिर वे जनता के किसी आंदोलन का नेतृत्व जनता के हित में कैसे कर सकते हैं ? वे तो सिर्फ अपने NGOs और उन्हें फंड देने वाले पूँजीपतियों के हितों के बारे में सोचेंगे. इस पूरे तमाशे में अन्ना के दांए- वांए हर समय दिखाई देने वाले अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी की नैतिकता क्या है? इनके NGOs को जिन पूँजीपतियों से फंड मिलता है उनकी लिस्ट छप चुकी हैं. किरण बेदी को हम उतना ही जानते हैं जितना मीडिआ ने उनके महिमा मंडन के लिए हमें बताया है. फर्स्ट महिला आई.पी.एस, इंद्रा गाँधी की गाड़ी उठवाना, तिहाड में कैदियों से कीर्तन करवाना, इनके अलावा आपने उनकी कोई उपलब्धि सुनी है जो समाज हित में हो? हाँ वे आपकी कचहरी में जज भी होती थीं जो लीगल एडवाइज देती थीं. वैसी ही जैसी यह व्यवस्था उनसे दिलवाना चाहती है. मैडम ने ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डिवलप्मेंट की डाइरेक्टर जनरल के पद से रिटायरमेंट लिया है. उन्होंने डी.जी.पी बनने के लिए बहुत पैर पीटे पर बन नहीं पाईं. इसलिए नहीं कि डी.जी.पी बन के वे पुलिस में भ्रष्टाचार खत्म करना चाहती थीं बल्कि इसलिए कि पुलिस रिसर्च के बजाय इस पद में कुछ ज़ाइदा फ़ाइदे थे. इसलिए उन्हें पुलिस रिसर्च से रिटायरमेंट लेकर अपने दोनों NGOs नव ज्योति व इंडियन विज़न पर ध्यान देना ज़्यादा उचित लगा. क्या रिसर्च की उन्होंने ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च में? पुलिस सबसे अधिक भ्रष्ट क्यों है इसी पर कोई रिसर्च उन्होने समाज के सामने रखी होती. उनसे तो वी.एन. रॉय अच्छे हैं जिन्होंने पुलिस की सांप्रदायिक मानसिकता पर अच्छी रिसर्च पुस्तक लिखी है. अगर वे नौकरी मैं रहते हुए नहीं लिख सकती थीं तो रिटाइरमेंट के बाद लिख सकती थीं. लेकिन उन्हें भ्रष्टाचार से कुछ लेना देना नहीं है. शांति भूषण जो ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे - जनता पार्टी में मंत्री रहे,फिर काँग्रेस में आए, फिर भाजपा में आए और अब सिविल सोसाइटी बन गए. उन पर सरकार से फ़्लैट हथियाने के आरोप लग रहे हैं. अरविंद केजरीवाल परिवर्तन नाम से NGO चलाते हैं. ऐसा लगता है तमाम NGO वादियों ने अपने आप को सिविल सोसाइटी घोषित कर भाजपा के साथ मिलकर अपने कार्यकर्ताओं को आंदोलनकारियों के रूप में उतार दिया है ताकि NGOs और उन्हें फंड देने वाले कॉर्पोरेट को लोकपाल में शामिल करने की माँग से बचा सकें.
इस आंदोलन में जिस व्यक्ति को सबसे महान आदर्श के रूप में पेश किया गया है वे हैं अन्ना हज़ारे. अन्ना की टोपी लगाकर भाजपा कार्यकर्ता NGOs व भावुकता में बह गए कुछ दूसरे लोगों के साथ मिलकर 'मैं अन्ना हूँ' लिखी टोपी लगाकर आंदोलंकारी बने हुए हैं.
सवाल यह है कि एक आम आंदोलंकारी और नेता में क्या फ़र्क है? नेता का आंदोलन के मुद्दों पर पूरा अध्ययन होता है, उसे पता होता है कि उसके आंदोलन का लक्ष्य क्या है, उसे पता होता है कि आंदोलन को विरोधी सत्ता से कैसे निपटना है, उसके पास, एक अवधारणा, राजनीति एक सुगठित रणनीति और आंदोलन के मध्य ज़रूरत पड़ने पर रणनीति को बदलने का रणकौशल होता है. एक आम आंदोलनकारी और नेता में यही फर्क है. अगर हम तमाम आंदोलनों पर नज़र डालें तो यही बात स्पष्ट होगी.
अन्ना दूसरे गाँधी हैं. अगर पहले गाँधी की बात की जाए तो वे आज़ादी के आंदोलन के नेता रहे और उन्होंने पूरी लड़ाई के दौरान समाज व व्यवस्था के बारे में अपनी समझ रखी. आज़ादी की लड़ाई में जिस दौर में और जो भी नेता रहे हैं उनके बारे में यह बात सत्य है. तरुण भगत सिंह भले ही रूसी समाजवादी क्रांति से प्रभावित हों लेकिन समाज व व्यवस्था के बारे में उनकी समझ, उनके विचार, उनके विश्लेषण कम महत्वपूर्ण नहीं थे और इसी लिए हम आज कहते हैं कि भगत सिंह मर सकते हैं उनके विचार नहीं. जहाँ तक कि नेहरू, जे.पी, और लोहिया के बारे में भी यह बात सच है. अन्ना की समाज और रजनीति के बारे में क्या, समझ है, क्या विश्लेषण है और उसे बदलने के बारे में उनके क्या विचार बनते हैं? कभी किसी ने पढ़ा हो ? अन्ना कम पढ़े- लिखे हैं उनके पास विचारों को लिखने का कौशल नहीं है तो वे उन्हें व्यक्त तो कर सकते हैं. अगर उनके पास समाज और राजनीति की समझ ही नहीं है, कोई विश्लेषण ही नहीं है, कोई विचार ही नहीं है फिर वे समाज का नेतृत्व कैसे कर सकते हैं? कुछ समय पहले उन्होंने कहा राहुल में प्रधानमंत्री बनने की योग्यता है, प्रधानमंत्री तो अच्छे व ईमांदार हैं उनका रिमोट ग़लत है, मोदी के बारे में उनके विचार, राज ठाकरे के बारे में उनके विचार, भ्रष्ट नेताओं का माँस चील कौवों को खिलाने की बात ये सब बातें उनकी सामाजिक व राजनीतिक समझ की कहानी स्पष्ट कर देती हैं. कितनी मज़ेदार बात है आज़ादी की दूसरी लड़ाई अपने चरम की ओर बढ़ रही है और उसका आह्वान करने वाले सबसे आदर्श एवं महान नेतृत्वकारी दूसरे गाँधी का कोई विचार मुझे पढ़ने को नहीं मिला है सिवा इस ज़िद के कि प्रधानमंत्री व न्यायपालिका को लोकपाल बिल में शामिल किया जाना चाहिए. जहाँ तक कि वे यह समझने से भी इंकार कर रहे हैं कि NGOs, कॉर्पोरेट और मीडिआ के भ्रष्टाचार सामने आ रहे हैं वे राजनीतिक भ्रष्टाचार से ज़्यादा संगीन हैं और वे उन पर एक शब्द भी नहीं बोल रहे हैं.
दर अस्ल अन्ना ने अपने गाँव रालेगाँव सिद्धि में जो काम किया है वह गाँव के मुखिया या चौधरी द्वारा किया जाने वाला काम जैसा है और कुछ उसी तर्ज पर किया गया है. उनकी समझ भी गाँव के मुखिया या चौधरी जैसी ही है.
सिर्फ़ सादगी और व्यक्तिगत ईमानदारी ही किसी व्यक्ति को समाज का नेता नहीं बना देती. अगर ऐसा है तो फिर सरकार और अन्ना व उनकी सिविल सोसाइटी में क्या अंतर है? अन्ना और मनमोहन दोनों को व्यक्तिगत रूप से ईमानदार बताया जाता है. जैसा उनका मंत्रिमंडल है वैसी उनकी सिविल सोसाइटी, वे अपनी सिविल सोसाइटी व कॉर्पोरेट को बिल से बाहर रखना चाहते हैं, वे प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को. फिर मनमोहन को अन्ना की जगह टोपी पहना के बैठा देने में क्या हर्ज है.
फिर भी कॉर्पोरेट मीडिआ ने उन्हें एक
तथाकथित राष्ट्रीय आंदोलन के आदर्श नेता के रूप में पेश किया है तो यह उसकी बेवक़ूफ़ी, हड़बड़ी या सिर्फ़ टी.आर.पी का ही मामला नहीं है. इसे समझने की ज़रूरत है.
आज आम आदमी जिस तरह व्यवस्था की हिंसा का शिकार है, लोग आत्महत्याएं कर रहे हैं, उनकी जीवन परिस्थितियां बहुत क्रूर हो गई है, शासक वर्ग जानता है कि इससे जनता में आक्रोश बढ़ेगा और वह हद तक पहुँच गया तो फिर जनता की प्रति हिंसा के रूप में ही सामने आएगा. नेपाल में वह देख चुका है और अरब देशों में वह देख रहा है. इससे वह बेहद डरा हुआ है. अप्रेल के बाद कॉर्पोरेट मीडिआ के मीडिआकारों ने ज़ोर देकर यह कहना भी शुरू कर दिया है कि आम आदमी की आगे की लड़ाई इसी तरह लड़ी जानी चाहिए. पूँजीवाद अपनी उच्च अवस्था की ओर ही बढ़ेगा उसे गाँधी के निम्न पूँजीवाद की ओर लौटाना संभव नहीं है. इसलिए शासक वर्ग गाँधी के विचार के साथ सामने नहीं आता. उसे लगता है गाँधी की लड़ाई का तरीका उसे जनता की प्रति हिंसा से बचा ले जाएगा. वह इसे एक हथियार के रूप में प्रयोग करना चाहता है. इसलिए उसके लिए यह ज़रूरी है कि अन्ना को टोपी पहना के अनशन पर बैठाए और जनता में बार बार यह संदेश दे कि जो काम बड़े - बड़े नेता नहीं कर पाए वह अन्ना ने कर दिखाया.
अगर लोकपाल बिल आपसी सहमति से पास हो गया तो मीडिआ देश को महीनों जश्न में डुबोए रखेगा, इसे अब तक की सबसे बड़ी क्रांति घोषित करेगा और कहेगा जो काम अभी तक मार्क्सवाद और पूँजीवाद नहीं कर पाए उसे गाँधीवाद ने कर दिखाया है. ओबामा अमेरिका से संदेश भेजेंगे उनकी आस्था गाँधीवाद में बहुत बढ़ गई है. हो सकता है वे अन्ना को हार पहनाने भारत दौड़े चले आएं. अन्ना का नाम नोबुल या मैग्सेसे के लिए नोमिनेटेड करा दें.

1 comment:

  1. बहुत शानदार लिखा अपने ,राम प्रकाश जी ! जिस तरह से आपने अन्ना हजारे के आन्दोलन का पोस्त्मर्तम किया है उससे एक एक भीतर की बातें हल कर सामने आ गयी हैं ! दूसरे लेख भी मैंने देखे ,सभी बहत अच्छे हैं ! बधाई आपको !

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