Saturday 27 April 2013

पहले लक्ष्य तो तय करें



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          दिसम्बर में हुए बलात्कार के बाद देशभर में भारी प्रदर्शन हुए थे.सरकार ने एंटी रेप क़ानून बनाने के लिए जस्टिस वर्मा कमेटी का गठन कर दिया और मामला शांत हो गया.जितने बड़े स्तर पर ये प्रदर्शन हुए और जिस क़दर लोगों में गुस्सा था उससे एक उम्मीद बंधी थी कि शायाद इस लड़ाई के कुछ बेहतर परिणाम निकलेंगे लेकिन ऐसा नहीं हो सका.कहने को कहा जा सकता है कि एंटी रेप क़ानून में सख्त सजाओं का प्रावधान है और ये इस संघर्ष की उपलब्धि है. लेकिन ऐसा नहीं लगता कि इन कानूनों के बन जाने से  या बलात्कार के लिए सबसे कड़ा कानून फांसी की सज़ा जैसा क़ानून बन जाने से बलात्कार की घटनाओं में कोई  कमी आएगी. अपराध रोकने में क़ानून की अपनी भूमिका होती है परन्तु सिर्फ सख्त से सख्त क़ानून बना देने से कोई अपराध नहीं रुक सकता. अगर कोइ अपराध समाज में बढ़ रहा है तो इसका मतलब है कि समाज में कुछ ऐसी परिस्थितियाँ हैं जो उस अपराध के कारणों को बढ़ावा दे रही हैं और जब तक वे परिस्थितियाँ नहीं बदलेंगी सख्त से सख्त क़ानून उस अपराध को रोकना तो दूर उसे कम करने में भी सहायक नहीं हो सकता.
       सिर्फ यह कह देने से भी बलात्कार जैसा अपराध नहीं रुक जाता कि समाज को अपनी मानसिकता बदलनी पड़ेगी.जब तक कि आप उन कारणों को नहीं बदलोगे जिन पर समाज की यह मानसिकता टिकी है. समाज का सामंती वातावरण बचपन से ही लड़का लड़की के बीच तरह तरह के पूर्वाग्रह पैदाकर देता है,वहीं समाज में सामाजिकता और रचनात्मकता एक तरह से समाप्त सी होती जा रही हैं. एक तरफ जीविका के संसाधन बहुसंख्यक जनता के लिए कठिन होते जा रहे हैं तो दूसरी तरफ छोटे से वर्ग में पैसे ने ऐशो-अय्याशी की विकृत प्रवृत्तियाँ विकसित की हैं.इन सब ने मिलकर समाज को बेहद कुंठित बना दिया है.ये कुंठाएं कुछ लोगों में मानसिक विकृतियों का रूप धारण कर लेती हैं और वे विकृतियाँ बलात्कार के रूप में प्रदर्शित होती हैं. इसलिए बिना सामाजिक ढाँचे को बदले इस तरह की धटनाओं को रोकना संभव नहीं है.  जहां देश की सामाजिक व्यवस्था समस्याग्रस्त है वहीं क़ानून व्यवस्था भी लचर है.ऐसे में मध्यम  वर्ग के एक बड़े हिस्से को यही लगता है कि फांसी की सज़ा से बलात्कार रुक जाएगा. यही लोग हैं जो कहते हैं कि देश डेमोक्रेसी के लायक नहीं है तानाशाही आ जाए तो सब सुधर जाएगा.दरअस्ल यह समझने की बात है कि हर अपराध के कारण एक जैसे नहीं होते.एक चैनल पर मैंने एक पूर्व पुलिस अधिकारी को यह कहते सुना कि  पुलिस अधिकारियों में इच्छा शक्ति की कमी है.उनमें के.पी.एस.गिल जैसी इच्छा शक्ति होनी चाहिए.बलात्कार पंजाब के आतंकवाद जैसी समस्या नहीं है. और न उसे इस तरह के दमन से समाप्त किया जा सकता है. यह ऐसी भी समस्या नहीं है कि कॉलेज की गुंडा गर्दी से होते हुए कुछ छात्र गली मुहल्लों में हफ्ता वसूली करने लगते हैं और पुलिस अपना हिस्सा वसूल कर उन्हें पालती पोसती रहती है.बलात्कार की समस्या  हमारे समाज की आतंरिक बुनावट से जुडी है.कई सारे कारक उससे जुड़े हैं. समाज का सामंती ढांचा मुख्य कारक है तो मीडिया,दूर-संचार,फ़िल्में,बचपन से ही स्त्री-पुरुष के बीच के पूर्वाग्रह, फर्जी नैतिक दबाबों व जीवन के वास्तविक व्यवहार के बीच के अन्तर्विरोध इस समस्या को बेहद जटिल बना देते हैं. लगातार बढ़ती सामाजिक समस्याएँ कुंठाओं को जन्म देती हैं और कुंठाओं से मानसिक विकृतियाँ पैदा होती हैं.इस तरह समस्या समाज के  आतंरिक ढाँचे में पूरी तरह समा जाती है.और इस तरह किसी भी उम्र की महिला घर से लेकर थाने तक कहीं भी सुरक्षित नहीं है.ऐसी समस्या को लोग फांसी का क़ानून बना कर या पंजाब की समस्या की तरह दमनात्मक तरीके से हल करने की बात कर रहे हैं.
     यों दुधमुंही बच्चियों से लेकर बुजुर्ग महिला तक और छेड़छाड़ से लेकर बेहद क्रूर तरीके से किए गए बलात्कार तक तमाम घटनाएं रोज़ घट रही हैं परन्तु दिल्ली की दो घटनाओं के मीडिया में चर्चित हो जाने से लोगों का दबा हुआ गुस्सा इन घटनाओं में फूट पड़ा है. इन दोनों मामलों में मीडिया का आम लोगों के आक्रोश को फैलाने में अच्छा सहयोग रहा पर टीआरपी बटोरने के बाद उसने पूरे मुद्दे को वहीं लाकर खड़ा कर दिया.भीड़ में से चार पांच लोगों को इकट्ठा कर पहले उसके संवाददाता डिमोस्ट्रेशन देते हैं कि जनता फांसी से कम कुछ भी मानने को तैयार नहीं है फिर अपनी ही बात उन लोगों से कहलवाते हैं.हमें याद होगा कि मीडिया ने जनता के आक्रोश को किस तरह अठारह साल से कम उम्र के आरोपी को फांसी लगवाने की मुहिम में तब्दील कर दिया. अब वही मीडिया ऐसी बहस चला रहा है कि बलात्कारियों ने ऐसा करने से पहले शराब पी थी और पोर्न देखी थी थी.स्वाभाविक है अब सारी बहस पोर्न पर आ कर टिक जाएगी.
          इसके बावजूद मेरा मानना है कि इस तरह की घटना अगर मीडिया में फैलती है और लोगों का आक्रोश उन्हें घटना के विरुद्ध सड़कों पर लाता लाता है तो न सिर्फ उसका समर्थन किया जाना चाहिए बल्कि जितना संभव हो सके उसमें सहयोग भी किया जाना चाहिए. यह आवाज़ उठानी चाहिए कि सिर्फ कुछ चुने हुए मामलों में ही नहीं गरीब,दलित व आदिवासी महिलाओं के साथ जो उत्पीडन व बलात्कार की घटनाएं हो रही हैं दबंगों व प्रशासन द्वारा उन्हें दबा दिया जाता है उनके विरुद्ध भी आवाज़ उठाई जानी चाहिए.पूरे समाज को तो रातों रात नहीं बदला जा सकता परन्तु सख्त क़ानून व फांसी फांसी चिल्लाने के बजाय कुछ जाइज मांगे उठाई जाएं तो बेहतर होगा.जैसे देश में जिन  नेताओँ व अधिकारियों पर ऐसे आरोप लगे हैं उन्हें फ़ास्ट ट्रेक पर डालकर तीन महीनों के अन्दर उनका निस्तारण करना चाहिए ताकि जनता में यह सन्देश जाए कि सक्षम लोगों के लिए भी देश में क़ानून है. पुलिस व कोर्ट की जवाबदेही सुनिश्चित की जानी चाहिए. और उनके विरुद्ध कड़े क़ानून बनाए जाने चाहिए. सिर्फ महिला थाने बनाने से समस्या हल नहीं हो जाती. कोई भी महिला अपने आप को पहले पुलिस वाली ही मानती है और वे सारे गुण उसके चरित्र में भी होते हैं जो पुरुष पुलिस के चरित्र में होते हैं. सरकार को तुरंत मनोरोग विशेषज्ञ,मनोविश्लेषक,कानूनविद  व समाजशास्त्रियों की एक कमेटी का गठन करना चाहिए जो बलात्कार के कारणों व उसके समाधान पर विस्तृत रिपोर्ट तैयार करें.जो ngo महिलासशाक्तिकरण पर काम कर रहे हैं उनको मिलाने वाले फंड व उनके काम की विस्तृत समीक्षा होनी चाहिए.

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