Wednesday 19 June 2013

विकास के कसीदों से बुनी जा रही विनाश की कहानी सन्दर्भ उत्तराखंड की तबाही



          उत्तराखंड में बाढ़ ने जीवन तहस-नहस कर दिया है.केदार घाटी बारिश और बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुई है. मित्रो से मिली जानकारी के मुताबिक़ उत्तराखंड में बेहद  दर्दनाक मंज़र है. हज़ारों लोग लापता हैं. कितनी जानें गई होंगी कुछ भी नहीं कहा जा सकता.मैं 2007-2008 में करीब डेढ़ साल गौरी कुंड में रहा. हादिसे क्यों घटते हैं और कैसे घटते हैं उसका एक उदाहरण में देता हूँ.
अगस्त 2008 में गौरी कुंड अस्पताल के निचले हिस्से में शार्ट सर्किट से भयंकर आग लगी.यह अगस्त का महीना था इसलिए कोई कैसुअल्टी नहीं हुई. अगर मई-जून होता तो पचास-सौ लोग इस घटना में मारे गए होते.मई-जून में गौरी कुंड में पैर रखने की जगह नहीं होती.जिसे जहां जगह मिलती है वहीं सो जाता है.अस्पताल भी गैलरी से लेकर चबूतरे तक पूरा भरा रहता है.मुख्य चिकित्साधिकारी को कई बार लिखा था कि अस्पताल में एम.सी.बी. खराब है और यहाँ कभी भी हादिसा हो सकता है.एक दिन स्वास्थ्य निरीक्षक गौरी कुंड आए हुए थे,केदार नाथ में जो साथी कार्यरत था उसने उनसे कहा कि वे स्वास्थ्य मंत्री वाला पैसा निकलवा दें. दरअस्ल पिछले साल जब केदारनाथ के पट खुले थे तब तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री निशंक भी आए थे और केदारनाथ में तैनात उस साथी ने उनकी टीम का खाने पीने का खर्च उठाया था. स्वास्थ्य निरीक्षक ने मुझे गुडविल में यह बात बताई कि स्वास्थ्य मानती का रुद्रप्रयाग से केदार नाथ का खर्च मुख्य चिकित्साधिकारी ने उठाया था और उसमें करीब एक लाख खर्च हुआ है. पता नहीं मुख्य चिकित्साधिकारी ने उसे सरकारी खजाने से कैसे एडजस्ट किया होगा. कितनी  बात है कि मुख्य चिकित्साधिकारी पांच सौ-हज़ार रु. के पीछे पचास-सौ लोगों की जान जाने जैसे हादिसे की भी परवा नहीं करता और स्वास्थ्य मंत्री  की सौ किलोमीटर की यात्रा पर एक लाख खर्च कर देता है. दरअस्ल शासन-प्रशासन का यही रवैया है जो आपको हर जगह दिखाई देगा .
     उत्तराखंड में विकास के नाम पर जो कुछ हो रहा है, आज के विनाश में उसका भी बहुत कुछ हाथ है. टेहरी में भारत का सबसे ऊंचा बाँध(260 मीटर) बाँध बनाया गया है जिसमें एक सौ पच्चीस गांग डूब गए. अभी उत्तराखंड में करीब पांच सौ बिजली परियोजनाओं पर काम चल रहा है.इन परियोजनाओं के अनुसार पहाड़ों में अन्दर सुरंगें बनाई जा रही हैं, उनमें टर्बाइन चलाने के लिए नदियों का पानी छोड़ा जाएगा.जब मैं गौरीकुंड में था उस समय इन पर काम चल रहा था.सुरंगें बनाने के लिए डाईनामाईट से विस्फोट किए जाते थे उसकी भयंकर आवाजें देर तक केदार घाटी में गूंजती रहती थीं. गुप्त काशी के कई मकानों में दरारें पड़ गयी थीं.
     मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि विकास नहीं होना चाहिए. उत्तराखंड बेहद खूबसूरत और पर्यावरण की दृष्टि से बेहद संवेदनशील क्षेत्र है. अगर यहाँ पर्यावरण असंतुलित किया जाएगा तो उसका असर पूरे देश पर पड़ेगा.इसलिए कुछ भी करने से पहले काफी विचार करने की ज़रुरत है.अगर सरकार के पास कोई योजना है तो पहले उसे पर्यावारंविद व तकनीक विशेषज्ञों के साथ मिल कर उसके हर पहलू पर अध्ययन कराना चाहिए, गंभीर विचार-विमर्श करने के बाद ही कोई निर्णय लेना चाहिए. पर ऐसा नहीं होता है.सरकारें अध्ययन कराना तो दूर उनकी बात को सुनती तक नहीं हैं.पिछली सरकार के एक मंत्री ने विधान सभा में कहा था-   अभी आप एक पेड़ काटेंगे तो सुन्दर लाल बहुगुणा आ जाएंगे. यह बात उन्होंने दो बार कही थी और इसके लिए उनकी काफी आलोचना हुई थी. तो यह है हमारी सरकारों का रवैया. ऊपर मैंने अस्पताल में घटी घटना और मुख्य चिकित्साधिकारी का ज़िक्र किया है, उसका तात्पर्य यह बताना था कि  शासन और प्रशासन का दृष्टिकोण अपनी कमीशनखोरी और पूंजीपतियों के हित से नियंत्रित होता है. बिजली चाहिए और फ़टाफ़ट चाहिए .उसके लिए पहाड़ों को डाइनामाईट से उड़ाना पडेगा कोई बात नहीं हम उडाएंगे.उन्हें तहस नहस करना पडेगा,हम करेंगे पर तुम्हें फ़टाफ़ट बिजली देंगे.हमारे पास इतना वक़्त नहीं है कि हम यह सोचें कि बेहतर विकल्प क्या हो सकता है. बिजली किसे चाहिए? इतनी बिजली बन रही है वह कहाँ जा रही है ?किसानों की फसलें सूख जाती हैं गाँवों में कई-कई दिन तक बिजली नहीं आती.कारखानों में कभी बिजली नहीं जाती.शहरों में पॉश इलाक़ों की तुलना स्लम कॉलोनियों से करें फिर सोचें किसे बिजली चाहिए.कोयला घोटाले में कांग्रेस कहती है पूंजीपतियों को कारखाने चलाने के लिए बिजली की ज़रुरत थी इसलिए उसने ओने पोने में कोयला लुटा दिया. भाजपा कहती है कोयला तो अभी खदानों में पडा है सरकार ने उसे फ़टाफ़ट कारखानों तक क्यों नहीं पहुंचाया. सभी पार्टियां देश का विकास करना चाहती हैं.विकास के लिए चौबीस घंटे कारखानों का कहते रहना ज़रूरी है और उसके लिए बिजली बहुत ज़रूरी है. उसके लिए सरकारों को जो करना पडेगा वे करेंगी.भले ही वह आम जनता का विनाश ही क्यों न हो.
       राजस्थान में पानी का बेतहाशा दोहन करने वाली और उसके लिए कोर्ट तक से फटकार खाने वाली कंपनी कोको कोला ने देहरादून की विकासनगर तहसील में एक विसाल प्लांट डाला है. इससे पानी के दोहन के अलावा प्लांट से निकलने वाला अपशिष्ट पहाड़ों पर क्या असर डालेगा इसकी परवा किसे है. 2008 में पर्यावरणविदों की एक रिपोर्ट आयी थी जिसमें गोमुख पर भारी मात्रा में पहुँचने वाले कावड़ियों पर चिता व्यक्त की गयी थी और बताया गया था कि इससे  के ग्लेशियर पर बुरा असर पड़ रहा है. गोमुख में अधिक मानवीय आवाजाही पर रोक लगाने की सिफारिश की गयी थी. पर उनकी कौन सुनता है.सरकारें वहां की भोलीभाली जनता में हमारी देव भूमि जैसी जड़ बातों का प्रचार कर रही हैं. वहां के लोगों के कठिन जीवन की ज़िम्मेवारियों से तो सरकारें भागती हैं और उनके अन्दर ऐसे घटिया विचारों का प्रचार करती हैं.
         चार धाम यात्रा का इतना अधिक प्रचार किया जा रहा है कि हर साल लाखों लोगों की भीड़ बढ़ जाती है. अकेले केदारनाथ में मई=जून के महीने में पच्चीस-तीस हज़ार मज़दूर यात्रियों की डोली ढोने और खच्चर चलाने का काम करते हैं. साधे तीन हज़ार मीटर की ऊंचाई पर छः महीने तक आठ दस लाख लोग और चार पांच हज़ार खच्चर वहां ग़दर मचाएंगे उससे क्या वहां के पर्यावरण पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा ? लेकिन इन सब की किसे चिंता है. 

1 comment:

  1. वास्तविकता और सच्चाई की परतें खोलता लेखा|सिर्फ उत्तराखंड ही नहीं ये त्रासदी (विकास और आवश्यकता के नाम पर युद्धस्तर पर भविष्य की दुर्घटनाएं विचारे बगैर परियोजनाओं का क्रियान्वन और नेताओं के अपने लाभांश)के तहत एक क्रूरता का जीता जागता उदाहरण है|लेकिन इन घटनाओं के मुख्य दोषियों (जो परदे के बहुत पीछे रहते हैं और दुर्घटनाएं होने पर उन पर दूरदर्श्नीय दो आंसू भी ढरका लेते हैं |)इस सबसे बड़े लोकतंत्र में उनके लिए सज़ा का कोई प्रावधान नहीं | गैस काण्ड पिछली सदी की भयंकरतम दुर्घटना थी |क्या उसे प्राकृतिक त्रासदी कहा जा सकता है ?दस हज़ार से ज्यादा बेकसूर लोग मारे गए थे उसमे |जो यूनियन कार्बाईड (जहाँ से गैस लीक हुई थी )के आसपास का काफी बड़ा क्षेत्र इससे प्रभावित था जिसमे काफी जान माल की हानि हुई थी |उनके लिए सुना था की अमरीका से दवाएं आई थीं लेकिन वो मौत से बचे खुचे गंभीर रूप से पीड़ितों को नहीं मिल सकीं और कहाँ पहुँची ये खुलासा विश्व के इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के मुहं पर एक कालिख से ज्यादा कुछ नहीं|

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