Tuesday 27 August 2013

जनविरोधी राज्य व्यवस्था की पैदाइश हैं आसाराम जैसे ठग

                                             
           अभी देश में तीन घटनाएं घटी हैं जो सत्ता के चरित्र को समझने में मदद करती हैं.मुम्बई में एक महिला फोटोग्राफर का बलात्कार हुआ.पुलिस ने बलात्कारियों के स्केच बनाए और इतने बड़े शहर में उसने चौबीस घंटे के अन्दर अपराधियों को पकड़ लिया.इसके लिए पुलिस की सराहना की जानी चाहिए. काश ऐसी तत्परता पुलिस दलित,आदिवासी,गरीब महिलाओं के साथ होने वाले यौन अपराधों में दिखाए तो स्थिति में वाकई बहुत बड़ा सुधार आ सकता है.दूसरी घटना जेएनयू के छात्र व संस्कृति कर्मी हेम मिश्रा की है. उन्हें गड़ चिरौरी से महाराष्ट्र की पुलिस ने गिरफ्तार किया है.हेम मिश्रा वामपंथी विचार से जुड़े हैं और लोगों के बीच सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से जन जागृति का माहौल बनाने की कोशिश करते हैं.पुलिस ने पहले उनकी गिरफ्तारी को गोपनीय रखने की कोशिश की और बाद में यह आरोप लगाया कि वे माओवादियों को सन्देश देने जा रहे थे.पुलिस का यह रवैया काफी मशहूर है कि गरीब जनता के हित की बात करने वाले किसी भी व्यक्ति को वह माओवादी कह कर गिरफ्तार कर सकती है.  आदिवासियों के बीच काम करने वाले गांधीवादी हिमांशु कुमार ने तमाम मामले अदालत के सामने रखे हैं जिनमें पुलिस ने मओवादिओं के नाम पर आदिवासियों का प्रताड़ित किया है.
    तीसरा मामला आसाराम का है.आसाराम जो हिन्दू संत और अपने लाखों अनुयायिओं के बीच  दिव्य पुरुष व भगवान जैसी छवि रखते हैं.उन पर अपने ही स्कूल की एक बची के साथ बलात्कार का आरोप है.उनके ऊपर यह पहला आरोप नहीं है उन पर बच्चों की ह्त्या ,ज़मीन कब्जाने के तमाम आरोप लगते रहे हैं.उनके ऊपर अहमदाबाद में 67099 वर्ग मीटर व मध्यप्रदेश में सात सौ करोड़ रूपए की ज़मीन कब्जाने का आरोप है. 2008 में उनके स्कूल से दस- ग्यारह साल के दो बच्चे गायब हुए थे बाद में अहमदाबाद में ही नदी के किनारे उनके शव बरामद हुए थे. फरवरी 2013को उनके आश्रम में चौबीस वर्षीय राहुल पचौरी नाम के एक व्यक्ति का मर्डर हुआ था . उसके बाप का आरोप था कि वह आसाराम की फर्जी दवाओं के बारे में जानकारी रखता था,इसी वजह से उसका मर्डर हुआ है.उनके तमाम उल-जलूल बयान व हरकतें समय-समय पर मीडिया में आते रहते हैं.इसके बावजूद सत्रह अगस्त को एफ़.आई.आर. दर्ज करने के बाद अभी तक आसाराम से पूछताछ तक नहीं हो सकी है. गैर जमानती धाराओं में  एफ़.आई.आर.दर्ज होने के बावजूद आसाराम की गिरफ्तारी तो दूर पूछताछ तक न होना आखिर किस तरह के लोकतंत्र की ओर इशारा करता है?
इन तीन घटनाओं से सहज ही हमारे लोकतंत्र के वास्तविक स्वरूप को पहचाना जा सकता है.हेम मिश्रा की तरह किसी भी ऐसे व्यक्ति को सरकार प्रताड़ित करती है,जो आम आदमी की आवाज हो,उसे चेतनशील बनाने का प्रयास हो या फिर सरकार के दमन के प्रति प्रतिरोध का स्वर हो.कुछ दिन पहले सरकार ने कबीर कला मंच की संस्कृति कर्मी शीतल को गिरफ्तार किया था.आदिवासी अपने हुकूक की बात करते हैं तो उन्हें माओवादी कहकर प्रताड़ित करती है.मजदूरों के बीच काम करने वाले लोगों को बिना किसी कारण के प्रताड़ित करती रहती है.
मुम्बई में पत्रकार फोटोग्राफर के साथ गैंग रेप हुआ और पुलिस ने आरोपियों के स्केच बनवाए और चौबीस घंटे में उन्हें खोज मारा.इसलिए नहीं की सरकार महिलाओं के प्रति बहुत संवेदनशील है. इसलिए कि यह मीडिया का मामला था.वर्तमान लोकतंत्र में मीडिया भी एक शक्ति केंद्र है.पीड़ित महिला इस शक्ति केंद्र की एक कर्मचारी थी.सरकार का डर था कि शीघ्र कार्रवाई नहीं हुई और मीडिया ने उसे हाईलाईट कर दिया तो उसके लिए दिसंबर माह जैसी समस्या खड़ी हो सकती है. वरना रेप और गैंग रेप तो रोज़ ही इस देश में होते हैं, हो रहे हैं. दूसरी तरफ आसाराम हैं.उनके खिलाफ न सिर्फ बलात्कार जैसा संगीन आरोप है बल्कि अरबों की ज़मीन हड़पने,उनके आश्रम में हत्याएं होने जैसे आरोप हैं और रिपोर्ट लिखाने के ग्यारह दिन बाद भी पुलिस उनसे पूछताछ करने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाई है.ऊपर से पीड़ित लड़की के घर वालों को आसाराम के आदमी धमका रहे है.उसकी वजह यह है कि आसाराम धार्मिक सत्ता के केंद्र हैं और हमारे लोकतंत्र में धार्मिक सत्ता का भी विशिष्ट स्थान है.भाजपा,शिवसेना जैसी राजनीतिक पार्टियां धार्मिक सत्ता के बूते पर ही अपनी मजबूत स्थिति बनाए हुए हैं.यह बिना वजह नहीं है कि बात बात पर बलात्कारियों को तुरंत फांसी की मांग करने वाली सुषुमा स्वराज की  पार्टी आसाराम के विरुद्ध रिपोर्ट दर्ज होते ही,उनके पक्ष में आ गयी.इतना ही नहीं,कांग्रेस भी धार्मिक सत्ता की स्थिति को पहचान रही है और आसाराम पर बहुत ही नापी-तुली और सधी हुई बात रख रही है.

यह समझने की बात है कि राज्य व्यवस्था सिर्फ पूंजीपतियों,नेताओं,नौकरशाहों को छोटे व्यापारियों को ही लूट की सुविधा नहीं देती है बल्कि धार्मिक ढोंगी पाखंडियों को भी लूट की सुविधा देती है.इसकी वजह यह नहीं है कि आसाराम के लाखों अनुयायियों से राज्य व्यवस्था डरती है,इसकी वजह यह है कि आसाराम जैसे लोग जनता को बेवकूफ बनाए रखने में राज्य व्यवस्था की सहायता करते हैं.एक व्यक्ति जो सिर्फ प्रवचन देता है है और जनता के बीच षड्यंत्र करके न सिर्फ उसका आर्थिक दोहन करता है बल्कि स्कूल चलाना,ताबीज़,धूपबत्ती,अगरबत्ती बनाने का व्यवसाय चलाना,ज़मीनों पर कब्ज़ा करना जैसे आपराधिक व व्यावसायिक कामों में संलग्न है,खरबों की दौलत उसने इकट्ठी कर रखी है और राज्य व्यवस्था उसे खुली छूट देती है.सिर्फ आसाराम ही नहीं धर्म के नाम पर एक वर्ग जनता की भावनाओं के साथ लाखों करोड़ की ठगी का धंधा चला रहा है.एक कथा वाचक लाखों रूपए कथा वाचने के लेता है,टनों सोना मंदिरों में अटा पड़ा है और राज्य व्यवस्था यह सब करने की छूट देती है. माना कि इस ठगी के धंधे में धर्म भीरु जनता सहयोग करती है लेकिन राज्य का भी कुछ दायित्व होता है. जनता तो अफीम खाना चाहती है,चरस पीना चाहती है,जुआ खेलना चाहती है,सट्टेवाजों के यहाँ लोग दूर दूर से खुद सट्टा लगाने जाते हैं फिर राज्य व्यवस्था इन पर क्यों रोक लगाती है.अगर हमारी राज्य सत्ता आम जनता के हित में काम करने वाली होती तो आसाराम और उनके जैसे लोगों की विस्तृत जांच करवाती और जनता के सामने सच्चाई रखती तो आज जनता के बीच अंधश्रद्धा का इतना विशाल और जनविरोधी कारोबार नहीं पनप रहा होता.  

Sunday 18 August 2013

भाषा के पीछे छिपता क्रूरता का असली चेहरा

      कुछ दिन पहले ऑफिस में तीन चार लोग खड़े थे.पूंजीवाद पर बात करने लगे.एक लड़का जो सिविल की तैयारी कर रहा है बोला अब न पूंजीवाद है न कम्युनिज्म अब कल्याणकारी राज्य है,वेलफेयर सोसाइटी.दिन-प्रतिदिन इस पूंजीवादी व्यवस्था की क्रूरताएं बढ़ती जा रही हैं,आम आदमी का जीना दूभर होता जा रहा है फिर ऐसा क्या हो गया कि हमारी यह क्रूर व्यवस्था कल्याणकारी हो गयी.दरअस्ल भाषा के महत्व को शासक वर्ग भली भांति समझता है.कई बार वह अपने क्रूर चेहरे को भाषा के मुखोटे के पीछे छिपाने में सफल भी हो जाता है. इसलिए जब पूंजीवाद ने अपने खूनी पंजे और तेज़ कर लिए हैं आम आदमी के शोषण के नित नए तरीके वह ईजाद कर रहा है तब वह अपने आप को कल्याणकारी राज्य कहने लगा है.
     ऐसे ही नब्बे के दशक से निजीकरण का दौर चला .यह शब्द अपने आप में इतना बदनाम हो गया निजीकरण के समर्थक भी इस शब्द को बोलने में संकोच करने लगे.इस शब्द से ऐसा भाषित होता था कि सरकारें सार्वजनिक संसाधनों को पूंजीपतियों को बाँट रही हैं यही सच था और निजीकरण शब्द इसके लिए सबसे उपयुक्त था. लेकिन इस शब्द की बदनामी को देखते हुए शासक वर्ग ने उसके लिए एक अच्छा सा शब्द खोज लिया है -P.P.P. यानी प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप.मीडिया ने जनता में यह शब्द रवां कर दिया और आज आम आदमी की जुबां पर भी निजीकरण की जगह यही शब्द रहता है.
       NGO इस भ्रष्ट व्यवस्था का एक प्रभावशाली अंग बन गया है. यूं तो जाने अनजाने हर व्यक्ति ही आज की इस भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा बनने को विवश है पर NGO राजनीति की तरह भ्रष्टाचार का एक संगठित रूप है.उसके इस स्वरूप को अब आम आदमी जानने लगा है. भाषा कैसे-कैसे अर्थ रखती है यह बात मैंने कुछ दिन पहले एक कैंटीन चलाने वाले से बात करते हुए महसूस की .इस देश में हिंदी पर अंग्रेजी को तर्जीह देने का चलन है पर NGO वाले अब अपने आप को हिंदी में समाजसेवी संगठन ,समाज सेवी  बताने को तर्जीह देने लगे हैं. अगर अंग्रेजी में ही कहना हो तो सिविल सोसाइटी कहना पसंद करते हैं .
     नीरा राडिया का मामला हमें याद होगा .हमें यह भी याद होगा कि शुरू में मीडिया में राडिया को कॉर्पोरेट दलाल कहा था पर बाद में वह उसे कॉर्पोरेट लोबिस्ट कहने लगा . इसी तरह बड़े-बड़े अपराधी नेताओं को बाहुबली कहा जाता है.
 जैसे जैसे व्यवस्था की क्रूरता बढ़ती जाएगी वैसे-वैसे वह उस क्रूरता को ढकने के लिए भाषा को मुखौटा के रूप में इस्तेमाल करती जाएगी.इसलिए भाषा पर पैनी नज़र रखने की ज़रुरत है.