Wednesday 31 August 2011

अन्ना आंदोलन के सबक


अन्ना और उनकी सिविल सोसाइटी द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ा गया आंदोलन कुछ समझौतों के साथ लोकपाल बिल पर बनी सहमति के साथ समाप्त हो गया. इस आंदोलन के निहितार्थ जो भी हों पर एक बात स्पष्ट है कि इस तथाकथित आंदोलन ने उन लोगों को काफ़ी कुछ सोचने का मौका दिया जो समाज में परिवर्तन चाहते हैं. इस दमनकारी व्यवस्था को बदलना चाहते हैं.
इस आंदोलन के समर्थन में जो तर्क दिए गए उन पर विचार करना समीचीन होगा. लोगों का मानना है कि यह एक राष्ट्रीय आंदोलन था. जनता के हक़ में लड़ी गई एक लड़ाई थी. राष्ट्रीय स्तर पर जो जन आक्रोश देखा गया है उसने बेहतर समाज का सपना देखने वालों के दिल में एक उम्मीद जगा दी है कि जो मध्य वर्ग समाज के बारे में कभी कुछ नहीं सोचता वह किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर इकट्ठा हो सकता है और ज़रूरत पड़ने पर सड़क पर उतर सकता है. कुछ लोग इस आंदोलन से इस लिए भी बहुत आशान्वित हैं कि उनका मानना है लंबे समय से जनता में कोई आंदोलन खड़ा नहीं हुआ है और यह आंदोलन इस जड़ता को तोड़ेगा और समाज में जनांदोलनों के लिए ज़मीन तैयार करेगा. कुछ आशावादी लोगों को तो इससे भी अधिक ऐसी उम्मीद थी कि जनाक्रोश उभर आया है और संभव है कि आंदोलनकारी भ्रष्टाचार से आगे अपनी माँग रखेंगे और संभव है यह वास्तव में राष्ट्रीय आंदोलन का रूप ले सकता है.
इस आंदोलन के मूल्यांकन में जिन बिंदुओं पर मैं विचार करूँगा वे हैं - इसका नेतृत्व, आंदोलन के सहयोगी, आंदोलनकारी जनता, वे परिस्थितीयां जिन्होंने आंदोलन को जन्म दिया और आंदोलन में अपनाई गई रणनीति , इस आंदोलन के सबक विशेषकर प्रगतिशील लोगों के लिए.
किसी भी आंदोलन के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि उसका नेतृत्व किन हाथों में है. छोटे से लेकर विशाल आंदोलनों तक का इतिहास बताता है कि अगर आंदोलन का नेतृत्व सही हाथों में न हो तो आंदोलन कभी अपनी सही परिणति तक नहीं पहुँच सकता. ट्रेड यूनियन द्वारा किए जाने वाले तमाम आंदोलनों के बारे में ऐसी धारणा बनती रही है कि नेतृत्व मेनेजमेंट के हाथों बिक जाता है. आंदोलन, नेतृत्व की मंशा में खोट या नेतृत्व की समझ में कमी के कारण असफल होते रहे हैं.
अन्ना का आंदोलन का नेतृत्व जो लोग कर रहे हैं उन पर नज़र डालने से पता चलता है कि आंदोलन का नेतृत्व जन पक्षधर लोगों के हाथ में नहीं रहा है. अन्ना को इस आंदोलन का सबसे बड़ा आदर्श के रूप में पेश किया गया है लेकिन अन्ना की कोई राजनीतिक या सामाजिक समझ है ऐसा नहीं लगता. वे लोकपाल के माध्यम से भ्रष्टाचार समाप्त करने की बात कर रहे हैं पर उन्हें यह भी नहीं पता है कि समाजिक व राजनीति व्यवस्था की मूल में भ्रष्टाचार कैसे समाया हुआ है, कानून अपना काम कैसे करते हैं और वे भ्रष्टाचार को रोकने में क्यों असफल रहते हैं.
दर-अस्ल अन्ना के पिछले इतिहास से पता चलता है कि अन्ना गाँव में मुखिया-प्रधान स्तर के नेता रहे हैं और उन्होंने वैसे ही सामंती किस्म के सुधार अपने गाँव रालेगाँव सिद्धि में किए हैं(The Making of Anna Hazare,www.kafila.org पर मुकुल शर्मा ने इस गाँव के अध्ययन पर विस्तार से रिपोर्ट दी है), वे एक RTI एक्टिविस्ट रहे हैं. और महाराष्ट्र सरकार के कुछ मंत्रियों के खिलाफ़ सूचनाएं इकट्ठी कर उनके खिलाफ़ भ्रष्टाचार की जाँच करवाने जैसी लड़ाइयां उन्होंने लड़ी हैं. लेकिन समाज से भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए ज़रूरी है आपको समाज और राजनीति का समुचित ज्ञान हो, कानून के असफल रहने का ज्ञान हो. लोकपाल के लिए अनशन पर बैठना है इसके अलावा अन्ना के पास न तो आंदोलन चलाने की कोई रणनीति थी और न समाज और राजनीति का कोई ज्ञान. आज तक किसी ने अन्ना के विचार कहीं पढ़े हों कि वे समाज में क्या करना चाहते हैं. बस हवा में भ्रष्टाचार समाप्त करना चाहते हैं.
दर-अस्ल इस पूरे ताम झाम में अन्ना का इस्तेमाल तो एक प्रतीक के रूप में किया गया है. इसका असल नेतृत्व तो तथाकथित सिविल सोसाइटी रही है. यों इस सिविल सोसाइटी में मेधा पाटेकर जैसे कुछ सामाजिक कार्यकर्ता भी जुड़े रहे हैं परंतु जो मुख्यतः नेतृत्व की भूमिका में रहे हैं उनकी मंशा और और चरित्र को लेकर विचारणीय सवाल उठते रहे हैं. मुख्य नेतृत्व कर्ता अरविंद केजरीवाल ने पिछले 3 साल में अकेले फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन से ही 4 लाख डॉलर लिए हैं और तमाम अन्य कंपनियों से वे अपने NGO को करोडों रुपए लेते हैं. दूसरे नेतृत्वकारी लोगों में भी अधिकांशतः इसी तरह NGO से जुड़े लोग हैं जिनका ऐसा इतिहास भी नहीं रहा है कि वे समाज के हित में सोचने वाले लोग हैं. फिर मीडिआ के सामने NGOs को लोकपाल के दाइरे में लाने के सवाल पर केजरीवाल व प्रशांत भूषण की जो प्रतिक्रिया रही वह इस आशंका को सही सिद्ध करती है कि अपने आपको सिविल सोसाइटी कहने वाले NGO चलाने वाले ये लोग, जो लोकपाल के नाम पर भ्रष्टाचार खत्म करने की बात कर रहे हैं वास्तव में NGOs और कॉर्पोरेट के हितों के बारे में सोचने वाले लोग हैं.
इस आंदोलन में सिविल सोसाइटी के अलावा प्रमुख भूमिका निभाई मीडिआ और भाजपा ने. अप्रेल में जब अनशन शुरू हुआ था तब से लेकर अब तक मीडिआ ने जिस तरह की भूमिका निभाई है वह आश्चर्यचकित करने वाली है. अप्रेल के 3 दिन के अनशन को आज़ादी के बाद की सबसे बड़ी लड़ाई और अगस्त के अनशन को आज़ादी की दूसरी लड़ाई मीडिआ ने प्रचारित किया है. सच तो यह है कि जो कॉर्पोरेट मीडिआ आम जनता की हमेशा अनदेखी करता है उसने इस आंदोलन को लांच करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस आंदोलन के सबसे बड़े सहयोगी R.S.S और भाजपा रहे हैं. अब तो यह भी स्पष्ट हो गया कि रामलीला मैदान में भीड़ के लिए खाने का सामान जुटाने में
R.S.S के संगठन सक्रिय रहे हैं. अखबारों में खबरें आई हैं कि ABVP ने ज़बर्दस्ती स्कूल- कॉलेज बंद करा कर आंदोलन के रूप में भीड़ उपलब्ध कराई है. देशभर में भाजपा कार्यकर्ता सक्रिय रहे और अखबारों की ख़बरों से भी इस बात की पुष्टि आसानी से हो जाती है. ऐसा संभव है कि पहले से केजरीवाल और भाजपा में इस मुद्दे पर बात हुई होगी कि रामलीला मैदान में जुटने वाली भीड़ कैसे मेनेज करनी है. कुछ लोगों को लग सकता है कि आंदोलन से राजनीतिक फ़ाइदा उठाने के लिए भाजपा इस आंदोलन से जुड़ गई होगी. पर ऐसा नहीं है. जिस तरह का तालमेल शुरू से सिविल सोसाइटी और भाजपा के बीच रहा है और भाजपा एवं R.S.S ने सड़कों पर भीड़ जुटाने में मदद की है उससे लगता है कि सब कुछ पूर्व निर्धारित रणनीति के तहत था और यह बात इस आंदोलन पर सवाल खड़े करती है. यह स्पष्ट है कि भाजपा का भ्रष्टाचार या लोकपाल से कुछ लेना देना नहीं है. उसने अपने शासन काल में वह बिल भी पास नहीं किया जिसे जोकपाल कहा जा रहा है. अनशन तुड़वाने के वक़्त बुलाई गई सर्व दलीय बैथक में उसने अपना रुख स्पष्ट कर दिया जो कॉग्रेस से भिन्न नहीं था. गुजरात में मोदी लोकपाल की नियुक्ति के विरुद्ध कोर्ट के चक्कर काट रहे हैं. इतना सब होने के बावजूद भाजपा ने आंदोलन को इतना सहयोग क्यों किया? क्या इसलिए कि उसे पता था कि इस आंदोलन कि अंतिम परिणति क्या है, और अंततः यह शासक वर्गीय हितों के खिलाफ़ नहीं जाएगा.
यह बात ठीक है कि भाजपा कार्यकर्ताओं का भीड़ जुटाने में काफ़ी योगदान था फ़िर भी इस संपूर्ण भीड़ और उसके समर्थकों पर विस्तार से बात करना उचित होगा. रामलीला मैदान में जो भीड़ जुटी, देशभर के विभिन्न कस्बों व शहरों में लोग सड़कों पर देखे गए, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर लोगों ने आंदोलन का समर्थन किया तो क्या वास्तव में समाज का इतना बड़ा वर्ग भ्रष्टाचार समाप्त करना चहता है? यह मुद्दा उसकी प्राथमिकता में था. सवाल यह भी उठता है कि क्या यह जनांदोलन था? जैसा कि कुछ बुद्धिजीवी भीड़ को देख कर कह रहे हैं कि भ्रष्टाचार को लेकर जनता में ज़बर्दस्त आक्रोश है और यह जनांदोलन उसकी अभिव्यक्ति है. अगर यह जनाक्रोश था तो यह कैसा आक्रोश था जो अन्ना की अनशन के साथ पैदा हुआ और अन्ना के अनशन तोड़ने के साथ ही पटाखे छुड़ाते हुए दीवाली मनाते हुए बुझ गया. इतना नियंत्रित जनाक्रोश कि लाखों की संख्या में लोग सड़कों पर उतर आएं और 12 दिन उत्सव सा मना कर, पटाखे छुड़ा कर घर चले जाएं, न आक्रोश का कोई लक्षण 16 से पहले दिखाई दे और न 28 के बाद. इस बीच ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जनाक्रोश को हटाने वाला हो. अन्ना की यह ज़िद कि प्रधानमंत्री व उच्च न्यायपालिका को लोकपाल के दाइरे में लाओ और उन्होंने वह ज़िद छोड़ दी, अनशन खत्म हुआ सरकार, सरकारी की जगह गैर सरकारी(NGO) लोकपाल पेश करने पर राजी हो गई. एक स्थानीय मुद्दे पर जनता में जनाक्रोश भड़क जाए तो प्रशासन के हाथ- पैर फूल जाते हैं और पूरे देश में लाखों लोगों में जनाक्रोश भड़का हुआ हो, जनता सड़कों पर हो, आक्रोश का कोई चिह्न न 16 से पहले और न 27 के बाद दिखाई दे, इतने विशाल राष्ट्र व्यापी जनाक्रोश की इतनी उत्सवी और नियंत्रित अभिव्यक्ति शायद इतिहास में न मिले.
यह सच है कि 90 बे बाद जिस तरह आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ उससे पूँजी की लूट हुई है वहीं मध्य वर्ग की स्थितियों में कुछ बदलाव भी आए हैं. पर विश्व अर्थ व्यवस्था के महामंदी में फँसने का असर मार्केट पर पड़ा है और चारों तरफ़ बढ़ती मँहगाई व सरकार द्वारा हर महीने पेट्रौल की क़ीमत बढ़ा देने से सबसे अधिक मध्य वर्ग प्रभावित हुआ है. जैसी कि मध्य वर्ग की प्रवृत्ति होती है जिसे गाड़ी की ज़रूरत नहीं है फिर भी अगर नई नहीं ले पा रहा तो किस्तों पर पुरानी गाड़ी ही खरीद रहा है, दूसरे तरह के चोचले भी उसकी जीवन परिस्थितियों को कठिन बना रहे हैं. ऐसे में दिन पर दिन बढ़ती मँहगाई स्वाभाविक रूप से उसमें गुस्सा को बढ़ावा देती है. लेकिन यह गुस्सा कठिन होती जीवन परिस्थितियों से पैदा हुआ गुस्सा है. यह गुस्सा किसी सामाजिक बदलाव को लेकर नहीं है और 12 दिन चले अनशन के साथ बिना कुछ हासिल हुए पटाखों के साथ दीवाली मनाते हुए शांत भी हो गया. और न इस वर्ग की संघर्ष को आगे ले जाने की प्रवृत्ति है. जिस तरह लोग मोटरसाइकिलों से भीड़ की शक्ल में निकलते थे उससे तीन गुने लोग तमाशाई के रूप में उन्हें देख रहे होते थे. रामलीला मैदान में शराब पीकर जो हुड़दंग हुआ, BBC पर लंपटपन की जो खबरें छपी वे इतनी छोटी बात होतीं तो केजरीवाल को मीडिआ में यह स्पष्टीकरण नहीं देना पड़ता कि ये लोग आंदोलन का हिस्सा नहीं हैं. ये सारे लक्षण एक मध्य वर्गीय जनांदोलन को नहीं एक मध्य वर्गीय भीड़ को प्रदर्शित करते हैं.
दलित विमर्शकार इस आंदोलान को सवर्ण इलिट लोगों का आंदोलान कह रहे हैं उसकी वजह यह है कि RSS के साथ सवर्ण वर्ग जुड़ा है और इसमें एक वर्ग जो बेहद कुंठित है और उसके मन में दलित व आरक्षण के प्रति गहरी नफ़रत है. इस वर्ग ने इंडिया अंगेस्ट करप्शन के फेसबुक पेज से लेकर विभिन्न मंचों से आरक्षण का विरोध किया ओबीसी व दलितों को गालियां दीं. एक तरह से उन्होंने यह प्रदर्शित करना चाहा कि दलित समाज का उभरना ही भ्रष्टाचार है.
भाजपा और NGOs ने यह किया कि मध्य वर्ग के इस गुस्सा को मीडिआ के साथ मिलकर बहुत कुशलता से मेनेज कर लिया. और जितनी उसे ज़रूरत थी उतना उसे यूज कर लिया. उसने टेक्नोलोजी का उपयोग करते हुए लोगों को मिस कॉल मारने की सहूलियत उपलब्ध कराई. फिर उस न. पर भावुक किस्म के मेसेज भेजे. जैसे- भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाना है, भ्रष्टाचारी अब बच नहीं सकते, 74 वर्षीय अन्ना आपके बच्चों के लिए लड़ रहे हैं. अगर आज नहीं जागे तो बहुत देर हो जाएगी, अन्ना आपके लिए इतना कर रहे हैं और आप उनके लिए सड़क पर नहीं आ सकते, आदि-आदि. लोगों को नैतिक अपराधबोध सा भी हुआ कि अन्ना इतना कर रहे हैं और हम एक मिस कॉल भी नहीं मार सकते. और इस तरह एक श्रंखला सी बनती चली गई. इसका प्रभाव यह हुआ कि जिन लोगों की वजह से ही इस समाज में भ्रष्टाचार है वे भी मिस कॉल मार रहे थे और टोपी पहनकर यह चिल्ला रहे थे मैं अन्ना हूँ.
जो लोग यह मान रहे हैं कि इस आंदोलन ने देश में जनांदोलनों की ज़मीन तैयार की है, जो बड़े बड़े नेता नहीं कर पाए वह 74 वर्षीय अन्ना ने कर दिखाया या इससे जनता की राजनीतिक चेतना का विकास हुआ है वे लोग इस बात को समझने से इंकार करना चाहते हैं कि जनांदोलन या सामाजिक बदलाव का कोई विज्ञान भी होता है.इस देश में कोई भी व्यक्ति अन्ना बन सकता है अगर पूँजीपति वर्ग उसे अन्ना बनाना चाहे, अपना मीडिआ पूरी तरह उसकी सेवा में लगा दे. सिर्फ़ 3 दिन के अनशन के लिए 82.87668 लाख रु. हाथों हाथ इकट्ठे कर दे. जो लोग इस जनांदोलन से सीखने की बात कर रहे हैं, उन्हें समझना चाहिए कि जो अन्ना कुछ लोगों में सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में जाने जाते थे वे सिर्फ़ 3 दिन की अनशन में देश के महानायक सिद्ध कर दिए गए, केजरीवाल और उनकी NGO टीम कभी जनता के बीच नहीं गई और सिर्फ़ मोबाइल मेसेज के द्वारा ही उसने 16 अगस्त की सुबह राष्ट्र व्यापी जनांदोलन शुरू कर दिया और उसी के आह्वान पर आंदोलनकारी जनता ढोल नगाड़े बजाती हुई घर लौट गई. जो लोग यह कह रहे हैं कि इससे जनता की राजनीतिक चेतना का विकास हुआ है तो उन्हें समझना चाहिए कि हर आंदोलन जनता की राजनीतिक चेतना विकसित नहीं करता है, वैसे ही जैसे मंदिर आंदोलन ने जनता की चेतना पर प्रति गामी असर डाला जिससे बाहर आने में उसे 10 साल लगे. जनता की चेतना को विकसित करना नेतृत्व का कार्यभार होता है. इसी लिए आंदोलन शुरू होने से लेकर अंत तक पर्चे बाँटना, पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित करना, पुस्तकें उपलब्ध कराना जनांदोलन का अभिन्न हिस्सा होते हैं. इस जनांदोलन में अॅग्रेजी में एक बिल ड्राफ़्ट करने के अलावा नेतृत्वकारी NGOs ने क्या किया? किरण बेदी, केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और प्रशांत भूषण ये चार इस आंदोलन के मुख्य नेतृत्वकर्ता हैं. किरण बेदी, केजरीवाल और मनीष सिसोदिया के NGO करोडो रु. कंपनियों से लेते हैं. शांति भूषण पर सस्ते में सरकारी फ़्लैट कब्जाने के आरोप थे, अब यह भी सिद्ध हो गया है कि मुलायम और अमर सिंह के साथ उनकी बातचीत की सीडी सही है जिसमें वे सभी जजों के भ्रष्ट होने की बात कर रहे हैं और कह रहे हैं उनका पुत्र प्रशांत भूषण जजों को मेनेज कर लेगा. लोग इस भ्रष्ट सिविल सोसाइटी के बारे में बात नहीं कर रहे हैं और फ़ेसबुक पर एक चित्र डाउनलोड करके उसके नीचे लिख रहे हैं कि केजरीवाल और सिसोदिया आंदोलन के समय प्लेटफॉर्म पर सोए और ऐसा उनके जैसे महन त्यागी ही कर सकते हैं.
इस तरह देखा जाए तो इस आंदोलन ने लोगों में भावुक आदर्श, अतार्किक राष्ट्रवादी बातों को बढ़ावा देकर प्रतिगामी आंदोलन का काम किया है.

Sunday 21 August 2011

अन्ना का आंदोलन और नेतृत्व का सवाल


16 अगस्त को अन्ना अनशन पर बैठे और सरकार ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया. उसके बाद देश भर में प्रदर्शनों का दौर शुरू हुआ. हालांकि इन प्रदर्शनों में मुख्य भूमिका भाजपा की है, तथापि काँग्रेस को छोड़कर अन्य राजनीतिक पार्टियां भी इसमें हिस्सा ले रही हैं. आप उ. प्र., राजिस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली, बिहार यानी कहीं की भी ख़बरें देखेंगे भाजपा कार्यकर्ता इन प्रदर्शनों को सफल बना रहे हैं. ऐसे में कुछ लोग लगातार यह कह रहे हैं कि यह समय न तो अन्ना से सहमत- असहमत होने का है और न यह सोचने का है कि कौन आंदोलन से जुड़ा है. बस भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ सड़क पर उतर आने का है. आंदोलन के समर्थन की अपील करने वालों में कुछ वे लोग भी हैं जिन्हें लगता है कि यह आंदोलन मिस्र के तहरीर चौक की तरह किसी बड़े जनांदोलन में बदल सकता है.
जैसा कि हम जानते हैं कि अन्ना और उनकी सिविल सोसाइटी की लड़ाई भ्रष्टाचार रोकने के लिए एक कानून बनाने से शुरू हुई है और हद से हद उस कानून यानी लोकपाल के निर्माण तक जा सकती है. लोग लोकपाल के निर्माण को ही आज़ादी की दूसरी लड़ाई , व्यवस्था परिवर्तन वगैरह मान रहे हैं तो इस बात को समझने की ज़रूरत है.
अगर यह एक कानून के निर्माण की लड़ाई है तो हमें बरीकी से यह समझना होगा कि क्या यह कानून वास्तव में भ्रष्टाचार को निर्मूल कर देगा या जनता का जीवन दूभर बनाती जा रही इस व्यवस्था में राजनीतिक दलों के विरुद्ध जो आक्रोश बढ़ रहा था उसे सोखने का काम करेगा.
पहले जनता का ध्यान दूभर होती जीवन परिस्थितियों से हटाकर यह बताया गया कि पूरी व्यवस्था आकण्ठ भ्रष्टाचार में डूबी है, भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा है और उसे समाप्त करने की ज़रूरत है. फिर यह बताया गया कि इस भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए लोकपाल की ज़रूरत है. अंत में जब लोकपाल बिल पास हो जाएगा तो मीडिआ को इस बात का जश्न मनाने में सुविधा होगी कि यह पूँजीवाद के इतिहास की सबसे बड़ी जीत है, एक भ्रष्ट व्यवस्था को बदल कर पूँजीवाद की अब तक की सबसे बड़ी क्रांति की जा चुकी है. जो प्रगतिशील बुद्धिजीवी व्यवस्था से जुड़े हैं और कुछ कुछ समझते हैं कि ऐसे कानूनों से भ्रष्टाचार नहीं मिटता है वे इस जश्न को ऐसे मनाएंगे कि भले ही कोई व्यवस्था परिवर्तन न हुआ हो पर यह जनता की बहुत बड़ी जीत है आज जनता ने अपने अधिकारों की एक महत्वपूर्ण लड़ाई जीत ली है. इसलिए इस पर बहुत बारीकी से विचार करने की ज़रूरत है कि लोकपाल बिल के नाम पर जनता को मूर्ख बनाया जा रहा है. भ्रष्टाचार इस व्यवस्था की जड़ में समाया हुआ है और जो इस व्यवस्था में परिवर्तन किए बिना कानून बनाकर भ्रष्टाचार समाप्त करने की बात कर रहे हैं वे जनता को मूर्ख बना रहे हैं. दूसरी बात यह समझने की है कि अन्ना और उनकी टीम NGOs और कॉर्पोरेट जो इस व्यवस्था में सबसे भ्रष्ट क्षेत्र हैं उन्हें लोकपाल के दाइरे में लाने की बात न कर के उनका बचाव कर रही है.
इस तथाकथित आंदोलन को लेकर जो सबसे महत्वपूर्ण विचारणीय बात है वह है इसका नेतृत्व.
इतिहास गवाह है कि किसी भी लड़ाई का नेतृत्व अगर गलत लोगों के हाथ में होगा तो वह कभी सही मुकाम तक नहीं पहुँच सकती. जनता जीतकर भी हार जाती है. रशियन क्रांति में अंत तक आते आते कम्युनिस्ट पार्टी में फूट पड़ गई और वह बोलशविक और मेन्सविक में बॅट गई. बोलशविक जीत गए और रूस में समाजवाद की स्थापना हुई. अगर मेन्सविक जीत जाते तो जनता जीत कर भी हार जाती.
अन्ना और उनकी सिविल सोसाइटी पर एक नज़र डालने से ही यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि इस प्रायोजित आंदोलन का असली मक्सद क्या है और वे कौन लोग हैं जो इसका नेतृत्व सॅभाले हुए हैं. इस पूरी सिविल सोसाइटी में ज़्यादातर NGOs चलाने वाले लोग शामिल है जो अपने हितों के लिए NGO चलाते हैं उन्हें पूँजीपति अरबों रुपए फंड में देते हैं. इनकी ऐसी पृष्टभूमी भी नहीं है कि उन्होने कभी समाज या जनता के बारे में सोचा हो, जनता में कोई आंदोलन खड़ा किया हो फिर वे जनता के किसी आंदोलन का नेतृत्व जनता के हित में कैसे कर सकते हैं ? वे तो सिर्फ अपने NGOs और उन्हें फंड देने वाले पूँजीपतियों के हितों के बारे में सोचेंगे. इस पूरे तमाशे में अन्ना के दांए- वांए हर समय दिखाई देने वाले अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी की नैतिकता क्या है? इनके NGOs को जिन पूँजीपतियों से फंड मिलता है उनकी लिस्ट छप चुकी हैं. किरण बेदी को हम उतना ही जानते हैं जितना मीडिआ ने उनके महिमा मंडन के लिए हमें बताया है. फर्स्ट महिला आई.पी.एस, इंद्रा गाँधी की गाड़ी उठवाना, तिहाड में कैदियों से कीर्तन करवाना, इनके अलावा आपने उनकी कोई उपलब्धि सुनी है जो समाज हित में हो? हाँ वे आपकी कचहरी में जज भी होती थीं जो लीगल एडवाइज देती थीं. वैसी ही जैसी यह व्यवस्था उनसे दिलवाना चाहती है. मैडम ने ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डिवलप्मेंट की डाइरेक्टर जनरल के पद से रिटायरमेंट लिया है. उन्होंने डी.जी.पी बनने के लिए बहुत पैर पीटे पर बन नहीं पाईं. इसलिए नहीं कि डी.जी.पी बन के वे पुलिस में भ्रष्टाचार खत्म करना चाहती थीं बल्कि इसलिए कि पुलिस रिसर्च के बजाय इस पद में कुछ ज़ाइदा फ़ाइदे थे. इसलिए उन्हें पुलिस रिसर्च से रिटायरमेंट लेकर अपने दोनों NGOs नव ज्योति व इंडियन विज़न पर ध्यान देना ज़्यादा उचित लगा. क्या रिसर्च की उन्होंने ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च में? पुलिस सबसे अधिक भ्रष्ट क्यों है इसी पर कोई रिसर्च उन्होने समाज के सामने रखी होती. उनसे तो वी.एन. रॉय अच्छे हैं जिन्होंने पुलिस की सांप्रदायिक मानसिकता पर अच्छी रिसर्च पुस्तक लिखी है. अगर वे नौकरी मैं रहते हुए नहीं लिख सकती थीं तो रिटाइरमेंट के बाद लिख सकती थीं. लेकिन उन्हें भ्रष्टाचार से कुछ लेना देना नहीं है. शांति भूषण जो ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे - जनता पार्टी में मंत्री रहे,फिर काँग्रेस में आए, फिर भाजपा में आए और अब सिविल सोसाइटी बन गए. उन पर सरकार से फ़्लैट हथियाने के आरोप लग रहे हैं. अरविंद केजरीवाल परिवर्तन नाम से NGO चलाते हैं. ऐसा लगता है तमाम NGO वादियों ने अपने आप को सिविल सोसाइटी घोषित कर भाजपा के साथ मिलकर अपने कार्यकर्ताओं को आंदोलनकारियों के रूप में उतार दिया है ताकि NGOs और उन्हें फंड देने वाले कॉर्पोरेट को लोकपाल में शामिल करने की माँग से बचा सकें.
इस आंदोलन में जिस व्यक्ति को सबसे महान आदर्श के रूप में पेश किया गया है वे हैं अन्ना हज़ारे. अन्ना की टोपी लगाकर भाजपा कार्यकर्ता NGOs व भावुकता में बह गए कुछ दूसरे लोगों के साथ मिलकर 'मैं अन्ना हूँ' लिखी टोपी लगाकर आंदोलंकारी बने हुए हैं.
सवाल यह है कि एक आम आंदोलंकारी और नेता में क्या फ़र्क है? नेता का आंदोलन के मुद्दों पर पूरा अध्ययन होता है, उसे पता होता है कि उसके आंदोलन का लक्ष्य क्या है, उसे पता होता है कि आंदोलन को विरोधी सत्ता से कैसे निपटना है, उसके पास, एक अवधारणा, राजनीति एक सुगठित रणनीति और आंदोलन के मध्य ज़रूरत पड़ने पर रणनीति को बदलने का रणकौशल होता है. एक आम आंदोलनकारी और नेता में यही फर्क है. अगर हम तमाम आंदोलनों पर नज़र डालें तो यही बात स्पष्ट होगी.
अन्ना दूसरे गाँधी हैं. अगर पहले गाँधी की बात की जाए तो वे आज़ादी के आंदोलन के नेता रहे और उन्होंने पूरी लड़ाई के दौरान समाज व व्यवस्था के बारे में अपनी समझ रखी. आज़ादी की लड़ाई में जिस दौर में और जो भी नेता रहे हैं उनके बारे में यह बात सत्य है. तरुण भगत सिंह भले ही रूसी समाजवादी क्रांति से प्रभावित हों लेकिन समाज व व्यवस्था के बारे में उनकी समझ, उनके विचार, उनके विश्लेषण कम महत्वपूर्ण नहीं थे और इसी लिए हम आज कहते हैं कि भगत सिंह मर सकते हैं उनके विचार नहीं. जहाँ तक कि नेहरू, जे.पी, और लोहिया के बारे में भी यह बात सच है. अन्ना की समाज और रजनीति के बारे में क्या, समझ है, क्या विश्लेषण है और उसे बदलने के बारे में उनके क्या विचार बनते हैं? कभी किसी ने पढ़ा हो ? अन्ना कम पढ़े- लिखे हैं उनके पास विचारों को लिखने का कौशल नहीं है तो वे उन्हें व्यक्त तो कर सकते हैं. अगर उनके पास समाज और राजनीति की समझ ही नहीं है, कोई विश्लेषण ही नहीं है, कोई विचार ही नहीं है फिर वे समाज का नेतृत्व कैसे कर सकते हैं? कुछ समय पहले उन्होंने कहा राहुल में प्रधानमंत्री बनने की योग्यता है, प्रधानमंत्री तो अच्छे व ईमांदार हैं उनका रिमोट ग़लत है, मोदी के बारे में उनके विचार, राज ठाकरे के बारे में उनके विचार, भ्रष्ट नेताओं का माँस चील कौवों को खिलाने की बात ये सब बातें उनकी सामाजिक व राजनीतिक समझ की कहानी स्पष्ट कर देती हैं. कितनी मज़ेदार बात है आज़ादी की दूसरी लड़ाई अपने चरम की ओर बढ़ रही है और उसका आह्वान करने वाले सबसे आदर्श एवं महान नेतृत्वकारी दूसरे गाँधी का कोई विचार मुझे पढ़ने को नहीं मिला है सिवा इस ज़िद के कि प्रधानमंत्री व न्यायपालिका को लोकपाल बिल में शामिल किया जाना चाहिए. जहाँ तक कि वे यह समझने से भी इंकार कर रहे हैं कि NGOs, कॉर्पोरेट और मीडिआ के भ्रष्टाचार सामने आ रहे हैं वे राजनीतिक भ्रष्टाचार से ज़्यादा संगीन हैं और वे उन पर एक शब्द भी नहीं बोल रहे हैं.
दर अस्ल अन्ना ने अपने गाँव रालेगाँव सिद्धि में जो काम किया है वह गाँव के मुखिया या चौधरी द्वारा किया जाने वाला काम जैसा है और कुछ उसी तर्ज पर किया गया है. उनकी समझ भी गाँव के मुखिया या चौधरी जैसी ही है.
सिर्फ़ सादगी और व्यक्तिगत ईमानदारी ही किसी व्यक्ति को समाज का नेता नहीं बना देती. अगर ऐसा है तो फिर सरकार और अन्ना व उनकी सिविल सोसाइटी में क्या अंतर है? अन्ना और मनमोहन दोनों को व्यक्तिगत रूप से ईमानदार बताया जाता है. जैसा उनका मंत्रिमंडल है वैसी उनकी सिविल सोसाइटी, वे अपनी सिविल सोसाइटी व कॉर्पोरेट को बिल से बाहर रखना चाहते हैं, वे प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को. फिर मनमोहन को अन्ना की जगह टोपी पहना के बैठा देने में क्या हर्ज है.
फिर भी कॉर्पोरेट मीडिआ ने उन्हें एक
तथाकथित राष्ट्रीय आंदोलन के आदर्श नेता के रूप में पेश किया है तो यह उसकी बेवक़ूफ़ी, हड़बड़ी या सिर्फ़ टी.आर.पी का ही मामला नहीं है. इसे समझने की ज़रूरत है.
आज आम आदमी जिस तरह व्यवस्था की हिंसा का शिकार है, लोग आत्महत्याएं कर रहे हैं, उनकी जीवन परिस्थितियां बहुत क्रूर हो गई है, शासक वर्ग जानता है कि इससे जनता में आक्रोश बढ़ेगा और वह हद तक पहुँच गया तो फिर जनता की प्रति हिंसा के रूप में ही सामने आएगा. नेपाल में वह देख चुका है और अरब देशों में वह देख रहा है. इससे वह बेहद डरा हुआ है. अप्रेल के बाद कॉर्पोरेट मीडिआ के मीडिआकारों ने ज़ोर देकर यह कहना भी शुरू कर दिया है कि आम आदमी की आगे की लड़ाई इसी तरह लड़ी जानी चाहिए. पूँजीवाद अपनी उच्च अवस्था की ओर ही बढ़ेगा उसे गाँधी के निम्न पूँजीवाद की ओर लौटाना संभव नहीं है. इसलिए शासक वर्ग गाँधी के विचार के साथ सामने नहीं आता. उसे लगता है गाँधी की लड़ाई का तरीका उसे जनता की प्रति हिंसा से बचा ले जाएगा. वह इसे एक हथियार के रूप में प्रयोग करना चाहता है. इसलिए उसके लिए यह ज़रूरी है कि अन्ना को टोपी पहना के अनशन पर बैठाए और जनता में बार बार यह संदेश दे कि जो काम बड़े - बड़े नेता नहीं कर पाए वह अन्ना ने कर दिखाया.
अगर लोकपाल बिल आपसी सहमति से पास हो गया तो मीडिआ देश को महीनों जश्न में डुबोए रखेगा, इसे अब तक की सबसे बड़ी क्रांति घोषित करेगा और कहेगा जो काम अभी तक मार्क्सवाद और पूँजीवाद नहीं कर पाए उसे गाँधीवाद ने कर दिखाया है. ओबामा अमेरिका से संदेश भेजेंगे उनकी आस्था गाँधीवाद में बहुत बढ़ गई है. हो सकता है वे अन्ना को हार पहनाने भारत दौड़े चले आएं. अन्ना का नाम नोबुल या मैग्सेसे के लिए नोमिनेटेड करा दें.

Friday 19 August 2011

अन्ना का आंदोलन


16 अगस्त को अन्ना के अनशन के साथ भ्रष्टाचार के फ़िलाफ़ अन्ना और उनकी सिविल सोसाइटी का दूसरे दौर का आंदोलन शुरू हो गया. इस दूसरे दौर के आंदोलन को अभी 48 घंटे हुए हैं और इन 48 घंटों में जो कुछ घटा है वह इस आंदोलन पर कई दृष्टिकोणों से सोचने को मजबूर करता है.
जैसा कि कहा जा रहा है कि यह आंदोलन राष्ट्रीय आंदोलन का रूप ले चुका है, क्या यह सही है? अगर सरसरी तौर पर मीडिया रिपोर्टों को देखा जाए तो यह सही लगता है परंतु गौर से देखेंगे तो बात स्पष्ट हो जाएगी. आंदोलन किसी मुद्दे पर होता है और जब देश की बहुसंख्यक जनता मुद्दे से सहमत होती है व लोग प्रतिरोध के लिए बग़ावत पर उतर आते हैं तो हम उसे राष्ट्रीय आंदोलन कहते हैं. भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बहुसंख्यक जनता में आक्रोश है पर यह कहना कि देश भर में जनता सड़कों पर उतर आई है जल्दवाजी होगी. दिल्ली में भीड़ - भाड़ है पर निश्चित तौर पर यह कहना कि यह आंदोलन में टिकने वाली भीड़ है ठीक नहीं होगा. रामदेव के साथ कम भीड़ नहीं थी पर वह एक दिन भी नहीं टिक पाई. देश भर में अन्ना के समर्थन में जो प्रदर्शन हुए हैं उन्हें समझा जा सकता है. 2-3 कस्बों में मैंने भी देखा है. 20-25 लोग सड़कों पर नारे लगाते हुए चलते हैं, 25-50 लोग उन्हें घेरे तमाशा देख रहे होते हैं, मीडिआ बताता है कि सैकडो लोग सड़कों पर आए. कहीं - कहीं वास्तव में सैकडों लोगों की भीड़ जुटी है. लेकिन इन ख़बरों का वह हिस्सा महत्वपूर्ण है जिनमें बताया गया है भाजपा या सपा के किन किन नेताओं ने गिरफ़्तारी दी. उत्तरी भारत के राज्यों की यही हक़ीकत है. महाराष्ट्र, मुंबई वगैरह में इंडिया अगेन्स्ट करप्शन आदि सक्रिय हैं. यह कहा जा सकता है कि जैसे भी हो देशभर में लोग सड़कों पर तो उतर ही आए. ठीक है. लेकिन हम यह क्यों भूल रहे हैं कि जो पार्टिया अन्ना के आंदोलन से जुड़ी हैं वे भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए नहीं अपने राजनीतिक फ़ाइदे के लिए जुड़ी हैं. फिर हम यह क्यों नहीं मन लेते कि भाजपा का हर शहर में इतना तो आधार है ही कि वह 1000-2000 लोग इकट्ठा कर सके. भाजपा चुनाव प्रचार के लिए ही अन्ना के साथ मैदान में आई है तो हम इन्हें चुनावी रैलियां ही क्यों नहीं मान लेते. इस बात को ऐसे भी समझा जा सकता है कि अगर भाजपा ने पूरे देश में यह आंदोलन इंप्लांट नहीं किया होता तो क्या देशभर में इसी तरह प्रदर्शन देखने को मिलते? इस तरह देखा जाए तो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर तो यह राष्ट्रीय आंदोलन नहीं लगता. यह तो हुई आंदोलन के स्वरूप की बात. अब हम देखते हैं कि ऐसा व्यक्ति जो बेहतर समाज के निर्माण के बारे में सोचता है उसे क्या करना चाहिए? किसी भी आंदोलन का समर्थन या विरोध करने से पहले क्या यह सोचना ज़रूरी नहीं है कि उसका स्वरूप क्या है, इस आंदोलन से नेतृत्व किन लोगों के हाथ में है, यह आंदोलन भ्रष्टाचार मुक्त भारत के निर्माण की बात कर रहा है और वह भी एक लोकपाल के जरिए यानी फिर एक धोखे की टट्टी खड़ी तो नहीं की जा रही ?
मैं मानता हूँ बहुत से सज्जन पुरुष इस आंदोलन का समर्थन भाजपा की राजनीति के लिए नहीं कर रहे हैं बल्कि वे सच में भ्रष्टाचार के विरोध में हैं. कुछ लोग इस उम्मीद में इस आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं कि क्या पता कल को आंदोलन का दाइरा इतना बढ़ जाए कि वह एक सच्चे आंदोलन का रूप धर ले और समाज में कुछ सार्थक परिवर्तन आ जाए. जैसे पिछले 2 दिनों से आनंद प्रधान की सक्रियता फ़ेसबुक पर काफ़ी बढ़ गई है और वे आंदोलन को बहुत ही आशा भरी नज़रों से देख रहे हैं और समर्थन के लिए बार बार अपील कर रहे हैं. उनका आज का एक स्टेटस- धीरे धीरे इस आंदोलन का दाइरा फैल रहा है. इस में छात्र नौजवानों के साथ निम्न मध्यम वर्गीय तबके भी शामिल हो रहे हैं. कल को यह और व्यापक हो सकता है, इसका दाइरा भी और मुद्दे भी.'
इसी आधार पर तरह तरह के तर्क इस आंदोलन का समर्थन करने के लिए लोग दे रहे हैं. कुछ लोगों का तर्क है कि वे एक सही मुद्दे का समर्थन कर रहे हैं, कुछ लोगों का तर्क है कि वे न अन्ना के साथ हैं न भाजपा के, वे भ्रष्टाचार के खिलाफ़ है और वे कह रहे हैं कि अन्ना से असहमति हो सकती हैं परंतु यह समय भ्रष्टाचार के खिलाफ़ खड़े होने का है और हमें अन्ना या भाजपा के बारे में न सोचकर भ्रष्टाचार के खिलाफ़ सड़्क पर उतर आना चाहिए. ये लोग उन लोगों से अधिक चतुर बनने की कोशिश कर रहे हैं जिनका मानना है कि भ्रष्टाचार इस व्यवस्था के मूल में है और व्यवस्था में आमूल परिवर्तन किए बिना भ्रष्टाचार से नहीं लड़ा जा सकता. एक तरह से वे यह कहना चाह रहे हैं कि व्यवस्था की बात छोड़िए और हमारे साथ लोकपाल के लिए सड़्क पर उतर आइए. जो कहना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार एक वाज़िब मुद्दा है और उसका समाधान लोकपाल है.
लोकपाल इस व्यवस्था में भ्रष्टाचार से नहीं लड़ सकता यह तो दूर की बात है अन्ना का लोकपाल तो इतना सलेक्टिव है कि जो प्रत्यक्षः सबसे बड़ा भ्रष्टाचार दिखाई दे रहा है वे उस पर बात ही नहीं करते. वे बार-बार 2 G की बात कर रहे हैं. इस घोटाले में कॉर्पोरेट, राडिया और मीडिआ के अंतर्संबंधों का जो खुलासा हुआ है वे उनकी बात नहीं कर रहे. उनकी सिविल सोसाइटी भी उनकी बात नहीं कर रही. पौने दो लाख करोड़ का घोटाला जिसमें ए. राजा को कितना मिला होगा? हद से हद 1%. बाक़ी 99% कॉर्पोरेट, राडिया और मीडिआ ने पचाया. 1% को लोकपाल के दाइरे में लाने की माँग कर रहे हैं और 99%के बारे में कुछ बोल ही नहीं रहे. टाटा और राडिया के टेप लीक हुए. बताया जता है टाटा राडिया को लॉबिंग के लिए प्रति वर्ष 60 करोड देते थे. (17.12.10 हिंदुस्तान टाइंस) और राडिया क्या करती थी? वह टाटा के लिए सरकार, नौकरशाह यानी जहाँ ज़रूरत होती थी वहाँ साठ गाँठ करती थी. लेकिन अन्ना की नज़र में यह सब भ्रष्टाचार नहीं है. और आप कह रहे हैं भ्रष्टाचार एक वाज़िब मुद्दा है आप सड़क पर उतर आइए.
ऊपर मैंने आनंद प्रधान का फेसबुक स्टेटस कोट किया है. उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए भी ऐसा सोचने का कोई आधार मुझे नज़र नहीं आता कि धीरे-धीरे आंदोलन, इसका दाइरा और मुद्दे व्यापक हो सकते हैं . दर अस्ल अरब देशों में जो उथल पुथल मची है उससे भारत में भी लोगों में उम्मीद बँधी है कि कुछ नहीं तो लोकपाल के नाम पर क्रांति हो सकती है. हमें समझना चाहिए कि हर देश की परिस्थितियां अलग होती हैं. मिस्र में 30 साल से हुस्नी मुबारक़ की तानाशाही थी . लोगों की जीवन परिस्थितियां बदतर हालत में पहुँच गई तो उनका आक्रोश फूट पड़ा कि इस तानाशाही को ख़त्म करना है और मिस्र में मुबारक़ चौक बन गया.
हम किसके लिए आंदोलन चला रहे हैं? लोकपाल के लिए. जब 5 अप्रेल को अन्ना अनशन पर बैठे तो 3 दिन बाद सरकार ने कह दिया ठीक है सिविल सोसाइटी को भी ड्राफ़्टिंग कमेटी में शामिल किए लेते हैं. मीडिआ ने 3 दिन की इस अनशन को आज़ादी के बाद की सबसे बड़ी लड़ाई , आज़ादी की दूसरी लड़ाई वगैरह वगैरह बताया. अन्ना ने 16 अगस्त की डैड लाइन दे दी. 4 महीने हमने वैस्ट इंडीज और इंग्लेंड के ख़िलाफ़ क्रिकेट देख के काट लिए. जब अन्ना वादानुसार ठीक 16 अगस्त को अनशन करने आ गए तो हम भी क्रांति करने आ गए. आगे क्या होगा? कॉग्रेस 4-6-10 दिन तेल देखेगी तेल की धार देखेगी. उसके बाद उसे कोई न कोई समाधान निकालना ही है. मान लो उसने कह दिया अंततः कौन सा बिल देना है उस पर एक बार फ़िर विचार कर लेते हैं. अन्ना फिर गाँधी जयंती की डैड लाइन दे देंगे. तब तक आप भारत - इंग्लैंड के बाक़ी मैच देखिए. कॉग्रेस ने उसके बाद बीच का कोई रास्ता निकाल लिया तो फिर क्रांति का प्रोग्राम तब तक के लिए स्थगत करना पडेगा जब तक संसद में बहस नहीं हो जाती है. मान लो बहस के बाद कैसा भी लोकपाल आ गया. तो अन्ना कि सिविल सोसाइटी के अरविंद केजरीवाल और किरन बेदी अन्ना को समझा देंगे कि देखिए लोकपाल आ गया, सूचना के अधिकार से 10 साल कट गए, आर्थिक उदारीकरण के बाद आम आदमी के हालात तेज़ी से खराब हो रहे हैं. लोक्पाल से 10 साल नहीं कटने वाले. 4-6 साल आराम कर लीजिए उसके बाद फिर क्रांति करनी ही पड़ेगी. इस बीच हमारा नाम नोबुल बोबुल के लिए नोमिनेटिड हो जाएगा तब तब हम अपने एन.जी.ओ चलाते हैं.
काँग्रेस में इस समय जिस तरह के नेता हैं उस आधार पर मान लो उसने ज़िद पकड ली कि वह अपना ही लूटपाल लाएगी तो( वैसे वह इतनी मूर्ख भी नहीं है). सुषमा स्वराज व अरुण जेटली को तो अन्ना के गिरफ़्तार होते ही इमर्जेन्सी दिखाई देने लगी और जनता पार्टी की तरह अपनी सरकार बनती नज़र आ रही. मान लो भाजपा की सरकार बन ही गई तो. तो लोकपाल तो लाना ही है. वह भी काँग्रेस वाला लोकपाल ले आएगी.(लोकपाल बिल उसके पहले शासन काल में रखा गया था पर उसने माना कहाँ था). अन्ना को समझा देगी कि भूल गए, मैं अन्ना हूँ वाली टोपी पहनाकर हमने ही आपके आंदोलन को राष्ट्रीय आंदोलन बनाया था. तब हो सकता है काँग्रेस अन्ना को ऑफर करे. खैर यह तो मेरी कल्पना है काँग्रेस ऐसा होने नहीं देगी.
इस पूरे आंदोलन में काँग्रेस, बीजेपी, अन्ना, सिविल सोसाइटी सबके अपने हित जुड़े हुए हैं पर ये कम्युनिस्ट क्यों अब्दुला दीवाने हुए जा रहे हैं ? दर अस्ल उन्हें क्रांति करने की आदत पड़ गई है. कोशिश की थी पर सफ़ल नहीं हुए अगर आर.एस.एस व बीजेपी भ्रष्टाचार पर ऐसा आंदोलन खड़ा कर ले जाती तो हो सकता है वे उनके साथ भी क्रांति करने आ जाते. वैसे यह आंदोलन भी उन्ही का है.
दर अस्ल वे बुर्जुआ को बेवकूफ़ समझते हैं. कॉर्पोरेट मीडिआ आंदोलन को हिट करने में जुटा है. पूँजीपतियों ने अन्ना के 3 दिन के आंदोलन के लिए 82.87668 लाख(उनमें से 25 लाख अकेले जिंदल ने दिए हैं) रु. (Times of India 14.04.11) इसी लिए दिए थे कि आओ भैया हमने तान दिए तंबू अब तुम आराम से क्रांति करो और कर दो लागू अपना मेनिफ़ेस्टो.

Saturday 18 June 2011

गांधीवादी आंदोलन की सीमाएं

पिछले दो महीनों में तीन घटनाएं विशेष रूप से सामने आई हैं. पहली 5 अप्रेल को अन्ना हज़ारे द्वारा शुरू किया अनशन, दूसरी 5 जून से बाबा रामदेव द्वारा शुरू किया गया अनशन और तीसरी गंगा में किए जा रहे खनन को लेकर भूख हड़ताल पर बैठे संत निगमानंद की 115 दिनों के अनशन के बाद मौत.
इन तीनों घटनाओं का उद्देश्य भूख हड़ताल द्वारा सत्ता को अपनी माँगे मनवाने के लिए मजबूर करना था. इन तीनो घटनाओं से जो महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकलते हैं उन पर विचार करते हैं -
अन्ना हज़ारे ने लोकपाल बिल के लिए अनशन किया. सरकार ने अन्ना की माँग मानते हुए लोकपाल बिल के लिए ड्राफ्टिंग कमेटी का गठन कर अन्ना की अनशन तुड़वा दी.
दूसरी घटना में बाबा रामदेव ने 5 जून को रामलीला मैदान में विदेश से काला धन वापस लाने के लिए अनशन शुरू किया. रात को दिल्ली पुलिस ने रामलीला मैदान में जुटी भीड़ पर आँसू गैस के गोले दागे, लाठियां बरसाईं और बाबा रामदेव को पकड़ कर हरिद्वार खदेड़ दिया.
तीसरी घटना में संत निगमानंद, गंगा नदी में अवैध खनन के विरुद्ध 19 फरवरी 2011 से हरिद्वार में भूख हड़ताल पर बैठे थे 27 अप्रेल को उनकी हालत खराब हुई और वे जौलीग्राण्ट में भर्ती कराए गए. अंततः उन्होने 115 दिन भूख हड़ताल पर रहते हुए 13 जून 2011 को अपने प्राण त्याग दिए.
अन्ना हज़ारे की अनशन के बाद जैसे शासक वर्ग में जोश की एक लहर दौड़ पड़ी थी. कॉर्पोरेट मीडिया ने इस अनशन को आज़ादी के बाद की सबसे बड़ी लड़ाई तो किसी ने आज़ादी की दूसरी लड़ाई कहा. सबसे ज़ोरदार तरीके से जो बात कही गई वह यह कि ये गांधीवाद की बहुत बड़ी जीत है. गांधीवाद की बहुत बड़ी जीत बता कर उसका ज़बरदस्त महिमा मंडन भी कराया गया .
दर अस्ल गांधीवाद के रूप में शासक वर्ग के हाथ में एक ऐसा हथियार लग गया है जिस के द्वारा उसे हर जनांदोलन को कुचलने की सहूलियत मिल जाती है. जब भी जनता में सत्ता वर्ग को लेकर कोई आक्रोश फूटता है शासक वर्ग गांधीवाद की दुहाई देकर उसे दबाने की कोशिश करता है. आश्चर्य की बात नहीं है कि दुनिया के क्रूरतम देश अमेरिका का राष्ट्रपति गांधीवाद को श्रेठ विकल्प घोषित करता है और अपने आपको गांधीवादी बताता है. इसलिए अन्ना हज़ारे की अनशन को शासक वर्ग ने ज़ोरदार तरीके से गांधीवाद की जीत के रूप में स्थापित किया तो इस में आश्चर्य की बात नहीं है.
अब अन्य दोनों घटनाओ पर नज़र डालिए. अन्ना, रामदेव और निगमानंद तीनों की राजनीति, उद्देश्य व मन्शा में फ़र्क हो सकता है लेकिन तीनों ने लड़ाई की जो शैली अपनाई वह एक जैसी यानी गांधीवादी ही थी. फिर तीनों की अंतिम परिणति में इतना अंतर क्यों आया? अन्ना के आंदोलन को शासक वर्ग ने हाथों हाथ लिया और उसके महिमा मंडन में मीडिया ने सारी हदें तोड़ दीं. पूँजीपतियों ने उसे प्रायोजित किया(अन्ना के 4 दिन के आंदोलन के लिए कुल 8287668 रु. जुटाए गए. उनमें से अकेले जिंदल एल्युमिनियम ने 25 लाख व सुरेंद्र पाल नामक उद्योगपति ने 16 लाख रु. दिए) खुद सरकार ने आंदोलन को पुलिस व प्रशासन द्वारा सुरक्षा प्रदान की. दूसरी ओर उसी तरह अनशन पर बैठे रामदेव पर प्रशासन ने आँसू गैस छोड़ी, लाठियां भांजी और उन्हे दिल्ली से उठाकर हरिद्वार खदेड़ दिया. उसी तरह गंगा में अवैध खनन रोकने के लिए 4 महीने से भूख हड़ताल पर बैठे निगमानंद की सरकार ने बात तक न पूछी और उनकी जान ले ली. इसी तरह मणिपुर की इरोम शर्मिला हैं जो सरकार के एक क्रूर कानून को हटाने की माँग को लेकर 2000 से भूख हड़ताल पर बैठी हैं और सरकार उनकी कोई बात नहीं पूछ रही. इससे एक बात सिद्ध होती है. अगर आप गांधीवादी तरीक़े से कोई आंदोलन चला रहे हैं तो उसकी सफलता या असफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उससे सत्ता वर्ग के निजी हित कितने प्रभावित होते हैं और वह शासक वर्ग के सामने कितनी चुनौती खड़ी कर पाता है. दर अस्ल शासक वर्ग को गाँधीवादी शैली के जनांदोलनों से कोई डर नहीं होता. वह व्यापक जनाधार से डरता है. उसे हमेशा यह डर रहता है कि यदि उसकी माँगे नहीं मानी तो जनता हिंसा पर उतर सकती है और उसके सामने बड़ी चुनौती पेश कर सकती है. अगर उसे इस बात का खतरा न हो तो कोई सालों भूख हड़ताल पर बैठा रहे या उससे उसकी मौत ही क्यों न हो जाए सत्ता वर्ग पर इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता. इरोम शर्मिला और संत निगमानंद सहित ऐसे तमाम उदाहरण मौजूद हैं .
दूसरी तरफ़ अनशन पर बैठे रामदेव को सरकार 24 घंटे भी नहीं झेल सकी. 20 हज़ार लोगों की भीड़ साथ होते हुए भी सरकार ने उसका दमन करते हुए रामदेव को दिल्ली से बाहर खदेड़ दिया. बहुत से लोग सोच रहे हैं कॉग्रेस ऐसा कर के अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रही है पर ऐसा लगता नहीं. दर अस्ल कॉग्रेस की रणनीति स्पष्ट है. उसे पता है रामदेव अन्ना नहीं हैं. 10 साल में उन्होनें जो अकूत संपत्ति इकट्ठी की है वह सब सफ़ेद नहीं है. भले ही रामदेव ट्रस्ट जैसे कनून का फ़ाइदा उठा ले जाएं पर कॉग्रेस जनती है अगर जाँच कराई जाएगी तो सब कुछ रामदेव के पक्ष में ही नहीं जाएगा. और अंततः वह जनता के बीच रामदेव की भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई की न सिर्फ़ पोल खोल देगी बल्कि यह भी साबित कर देगी कि रामदेव ख़ुद उससे अलग नहीं हैं. दूसरे वह जानती थी कि रामदेव के साथ जो 20 हज़ार जनता इकट्ठी हुई है यह आंदोलन करने वाली जनता नहीं है. इसे थोड़े से बल प्रयोग से खदेड़ा जा सकता है. तीसरे कॉग्रेस को पता था कि भले ही अन्ना का इस्तेमाल राजनीतिक अपने अपने तरीके से करना चाहते हों पर स्वयं अन्ना की कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है जबकि रामदेव की राजनीतिक महत्वाकांक्षा न सिर्फ़ कॉग्रेस के लिए चुनौती खड़ी कर सकती है बल्कि बीजेपी रामदेव के साथ जो रणनीति बुन रही है अगर वह उसमें सफल हो गई तो बीजेपी रामदेव के साथ मिलकर कोई हिंदूवादी लहर पैदा कर उसके लिए राजनीतिक खतरा न पैदा कर दे. इसलिए इससे पहले कि रामलीला मैदान में किसी राजनीतिक रामलीला का मंच तैयार होता कॉग्रेस ने उसे 12 घंटे के अंदर ही तितर वितर कर दिया.
जहाँ तक निगमानंद या इरोम शर्मिला का मामला है सत्ता वर्ग को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता. एक निगमानंद क्या हज़ार निगमानंद ऐसे अनशन कर के प्राण दे दें उसे उससे कोई लेना देना नहीं है. इस लिए जनता को किसी भुलावे में नहीं रहना चाहिए. और सत्ता वर्ग के गांधीवादी हथियार की सच्चाई को समझना चाहिए.

Friday 27 May 2011

भ्रष्टाचार जिसे आमतौर पर भ्रष्टाचार ही नहीं समझा जाता

तमाम तरह के भ्रष्टाचार समाज में उजागर होते रहते हैं. आज भ्रष्टाचार समाज में इस क़दर हावी है कि आम आदमी ने भ्रष्टाचार को वर्तमान सामाजिक व्यवस्था का अभिन्न अंग समझ लिया है. आज आए दिन बड़े - बड़े भ्रष्टाचार उजागर होते रहते हैं. लेकिन तमाम तरह के भ्रष्टाचार ऐसे हैं जिनके बारे में लोगों का ध्यान बिलकुल नहीं जाता है जबकि ये किसी बड़े भ्रष्टाचार से बिलकुल कम नहीं होते. मैं यहाँ एक उदाहरण दे रहा हूँ-
आँकड़े बताते हैं देश में 80 करोड़ से अधिक मोबाइल धारक हैं जिन्हें ऐअरटेल, वोडा, टाटा, रिलायंस जैसी तमाम कंपनियां अपनी सेवाएं प्रदान करती हैं. ये कंपनियां प्रतिदिन करोड़ों की ठगी करती हैं. जैसे बिना बताए टॉन लगा देती हैं और पैसे काट लेती हैं. दर अस्ल इन कंपनियों के पास ठगी करने के हज़रों तरीक़े है. कुछ घटनाएं जिनका मैं भुक्तभोगी रहा हूँ उनका ज़िक्र मैं यहाँ करता हूँ-
सन 2005 में हच कंपनी से एक व्यक्ति मेरे पास आया और उसने मुझे एक प्लान समझाया. जिसमें 300 रु. माह के पोस्ट पेड रेंटल 450 मिनट फ़्री थे( जहाँ तक मुझे याद आ रहा है) बाद में पता चला वे लोकल हच से हच पर थे. प्लान लेने के बाद जब उसके एक्ज़िक़्युटिव ने मुझसे बात की और मैंने उससे कहा कि तुमने मुझे चीट किया है तो उसका जवाब था - कंपनी हमें इसी बात के पैसे देती है. इसी तरह कई बार मेरे 20-30 रु यह कह कर काट लिए गए कि आपने गेम,पिक्चर य वाल पेपर डाउनलोड किया है. कुछ माह पहले मेरे रिलायंस के नंबर पर 20 रु माह बार मैसेज पैक के काट लेता था. एक बार उस पर यह पैक डलवाया था उसके बाद जैसे सिलसिला चल पड़ा. कई बार उसे डिएक्टिवेट करने की कोशिश की. हर बार रिक्वेस्ट फॉरवर्ड करके 3 दिन में डिएक्टिवेट करने के लिए बोलता था और उसके बाद फिर एक्टिव कर देता था. दर अस्ल ऐसा नहीं है कि उनके पास तकनीक का अभाव है, अगर वे चाहें तो 5 सेकंड में दिएक्टिवेट कर सकते हैं लेकिन वे ऐसा इसलिए करते हैं कि उनकी नीयत ख़राब है और वे किसी भी बहाने से उपभोक्ता का पैसा लूटना चाहते हैं. ऐसे ही आप अपने फॉन पर इंटरनेट पैक डलवाते हैं. आप यह सोचकर नेट खोलेंगे कि आपने पैक डलवा लिया है. जब आप सर्फ़ कर चुके होंगे तो आपका बैलेन्स कट जाएगा. आप कस्टमर केयर पर बात करेंगे तो बताएगा कि आपका पैक 24 घंटे बाद एक्टिव होगा. कोई दूसरी कंपनी और अधिक बदमाशी कर सकती है मतलब पैसा तुरंत न काट के 4-6 घंटे बाद काटेगी और तब तक आप 1-2 बार और नेट खोल चुके होंगे. इस तरह हम देखते हैं कि कंपनियों के पास बेइमानी करने के हज़ार तरीक़े हैं. मॉबाइल आज हर आदमी की ज़रूरत बन गया है परंतु आम आदमी कंपनियों की इस लूटपाट से खासा त्रस्त है. कोई सर्विस कॉल आती है तो लोग तुरंत उसे डिकनेक्ट कर देते हैं मानो पूरी बात सुनने भर से उनके पैसे कट जाएँगे.
इस तरह कंपनियां करोड़ो की रोज़ बेइमानी करती हैं. बहुत से भोले-भाले लोग सोचते हैं कि इसके लिए कॉर्ट कंज्यूमर फ़ॉरम वगैरह बने हैं अगर समाज में चेतना हो तो इन्हें रोका जा सकता है. कई साल पहले मैने अखबार में एक खबर पढ़ी थी. एयरटेल ने एक लड़की के नंबर पर कॉलर टॉन एक्टिव कर के पैसे काट लिए. लड़की कंज्यूमर फ़ोरम में चली गई. 3 साल बाद कॉर्ट ने कंपनी पर कुछ सौ रु. का ज़ुर्माना कर दिया. आदमी के पास न तो इतना समय है कि वह 25-50 रु. के लिए सालों कॉर्ट के चक्कर लगाए और न वक़ील को देने के लिए पैसा है. फिर न्यायपालिका विधायिका या कार्यपालिका का मंतव्य भी ऐसा नहीं है कि वह कॉर्पोरेट की ऐसी बेइमानी को रोकना चाहे. अगर कंपनी की 50 रु. की बेइमानी के ख़िलाफ़ आप कोर्ट जाएंगे तो वह आपको 10 साल में 200 रु. ज़ुर्माना दिलवा देगा. ऐसे में इस बुरी व्यवस्था को समाप्त किए बिना कंपनियों की करोड़ों की रोज़ की बेइमानी से छुटकारे का और कोई रास्ता नज़र नहीं आता.

Friday 8 April 2011

भ्रष्टाचार, अन्ना और जन आंदोलन

जब एक के बाद एक घोटालों की लड़ी लग गई है तो स्वाभाविक रूप से न सिर्फ़ सरकार की किरकिरी हुई है बल्कि भ्रष्टाचार को लेकर जनता में आक्रोश भी पनपा है. अब तक कॉर्पोरेट मीडिया मनमोहन को ईमानदार और आदर्श राजनीतिज्ञ के रूप में पेश करता आ रहा था. अब उसे मनमोहन सिंह पर उँगली उठाने को मजबूर होना पड़ा है. यद्यपि वर्तमान में कोई भी संगठन ऐसा नज़र नहीं आ रहा है जो जनता को लामबंद कर सके. लेकिन मिस्र और अरब देशों में जो कुछ घट रहा है उसे देखकर यहाँ का सत्ता वर्ग बेहद डरा हुआ है. जनता में भ्रष्टाचार को लेकर जो आक्रोश है उससे सत्ता वर्ग परेशान है. राजनीतिक पार्टियों की स्थिति यह है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी इस स्थिति में नहीं है कि वह भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जनता को लामबंद कर पाए. अगर ऐसा संभव होता तब भी बात बन जाती. ऐसे में अन्ना हज़ारे शासक वर्ग के लिए डूबते को तिनके का सहारा साबित हुए हैं. वह मीडिया जिसके पत्रकार भ्रष्टाचार में करोड़ों की दलाली कर रहे हैं अन्ना हज़ारे के समर्थन में उठ खड़ा हुआ है. रातों- रात उन्हें अच्छा खासा प्रचार मिल गया है. अगर आप अन्ना के साथ आंदोलन में उतरे लोगों पर नज़र डालेंगे तो और भी स्थिति स्पष्ट हो जाएगी. किरण बेदी जो दो एन.जी.ओ चलाती हैं, जिन्होने आज तक समाज के हित में किसी भी तरह का काम नहीं किया है फिर भी इंद्रा गांधी की गाड़ी उठवाने के कारण व प्रथम महिला आई.पी.एस के कारण मीडिया ने उन्हें समाज की बेहद खास व्यक्ति बना दिया है. बाबा राम देव जो भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ क़ाफ़ी आक्रामक नज़र आए परंतु जब उनके भ्रष्टाचार की ओर काँग्रेस ने इशारा किया तो उनकी हवा निकल गई. उनके समर्थन में आने वालों में आर.आर.एस और भारतीय जनता पार्टी, उमा भारती, चौटाला आदि हैं. खुद अन्ना बयान दे रहे हैं कि मनमोहन सिंह तो अच्छे व ईमानदार राजनीतिज्ञ हैं उनका रिमोट ग़लत है. मीडिया के प्रचार का आलम यह है कि जो बुद्धिजीवी अपने आप को विचारधारा से तटस्थ बताते हैं वे तुरंत अन्ना के समर्थन में आ गए और अब तो मार्क्सवादी संगठन भाकपा(माले) भी समर्थन में उतर आया है. यह जानते हुए भी कि यह भ्रष्टाचार के खिलाफ़ व्यवस्था के अंदर लड़ी जाने वाली लड़ाई है. और भ्रष्टाचार पर कोई विशेष प्रभाव इससे नही पड़ेगा. यही वजह है मीडिया इस आंदोलन को अच्छी खासी हवा दे रहा है.
सोचने की बात यह है कि जिस लोकपाल बिल के लिए अन्ना को मीडिया इतना प्रचारित कर रहा है क्या इससे भ्रष्टाचार में कोई फ़र्क़ आएगा? दर अस्ल लोकपाल बिल भी भ्रष्टाचार रोकने को सरकार ने जो ढेर सारे कानून बना रखे हैं उनसे बहुत अलग नहीं है, सिवा इसके कि लोकपाल को चुनने की प्रक्रिया थोड़ी भिन्न है और उसे कुछ शक्तियां अधिक दे दीं हैं. अलबत्ता यह सोचने की बात है कि जो व्यक्ति नौकरशाह, क्लर्क, नेता बनता है वह क्यों भ्रष्ट हो जाता है. फिर इस बात का कोई जवाब नहीं है कि लोकपाल बिल का हासिल भी वही नहीं होगा जो दूसरे भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों का हुआ है? जो भी हो अन्ना फ़िलहाल जनता का ध्यान भटकाने में सफल रहे हैं. या कहो कॉर्पोरेट मीडिया का प्रयास सफल हो गया है. दर अस्ल जनता में जो व्यवस्था विरोधी दबाब बढ़ रहा है उस दबाब को कम करने के लिए अन्ना जैसे सेफ्टी बाल्व की सरकार को ज़रूरत भी थी.

Sunday 9 January 2011

मूल्य और मीडिआ

मूल्य और मीडिआ
-राम प्रकाश अनंत
अक्सर हम रोना रोते हैं कि समाजिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है. प्रत्यक्ष रूप से यह देख भी जा रहा है कि जीवन के हर क्षेत्र का अवमूल्यन हुआ है. जो व्यक्ति को समाज से काट कर देखते हैं उनके लिए इसकी व्याख्या बहुत सीधी हैं. यानी सामाजिक पतन को रोकने के लिए लोगों के आचरण में नैतिक एवं धार्मिक उपदेशों द्वारा सुधार की आवश्यकता है. दर असल यह समझने की आवश्यकता है कि जब संपूर्ण समाज का पतन हो रहा है तब उसके कारण समाजिक आधार में ही सन्नहित हैं और बिना उस आधार को बदले आप सामाजिक पतन को रोक नहीं सकते. दर असल पूंजीवादी प्रवृत्तियों ने पूरे सामाजिक आधार को इस क़दर मूल्यहीन बना दिया है कि एक संदर्भ में हम जिसे नैतिक पतन कहते हैं दूसरे संदर्भ में उसे नैतिक मूल्य कहते हैं क्योंके पूंजीवाद के हित उससे जुड़े होते हैं. कुछ समय पहले धोनी एवं सचिन मीडिया मे छाए रहे. धोनी इसलिए कि उन्होने माल्या के साथ अब तक की सबसे बडी डील की है और सचिन छाए रहे कि उन्होने उसी डील को ठुकरा कर उच्च नैतिक मूल्य स्थापित किए है. मीडिआ ने उनके बारे में लिखा कि सचिन ने साबित कर दिया कि पैसा ही सब कुछ नहीं होता है नैतिक मूल्य भी होते हैं. अगर वास्तव में नैतिक मूल्यों का मामला होता तो मीडिआ को धोनी के बारे में लिखना चाहिए था कि धोनी ने यह साबित कर दिया कि पैसा ही सब कुछ है मूल्यों का कोई अर्थ नहीं है. दर असल मीडिआ का मूल्यों से कुछ लेना देना नहीं है. उसका उद्देश्य है, उसने जो आइडल बनाए हैं उनकी छवि को बनाए रखना(ताकि वे कंपनियों का माल बेच सकें). उसने सचिन और धोनी दोनो का ज़बर्दस्त प्रचार किया.सचिन को इतना प्रचार सिर्फ़ गोपनीय सूचना के आधार पर ही मिल गया. जबकि ऐसा भी संभव है कि इस तरह की कोई डील हुई ही न हो. सोचने की बात है कि इस मीडिया गुणगान से किसे फ़ाइदा हुआ और किसे नुक़सान? इसका समाज पर क्या असर पड़ा?ज़ाहिर सी बात है कि इससे धोनी, सचिन और उन कंपनियों को फ़ाइदा हुआ जिनका वे प्रचार करते हैं. इसका समाज पर यह असर पड़ा कि पैसा कमाना बड़ी चीज़ है चाहे वह शराब के प्रचार से कमाया जाए या किसी दूसरे तरीके से.
सचिन ने अभी अभी कोला के साथ 20 करोड़ की डील की है. माल्या की शराब का विज्ञापन न करना नैतिक मूल्यों की स्थापना है तो कोला का प्रचार करना नैतिक मूल्यों को ध्वस्त करना क्यों नहीं हैं. जबकि यह साबित हो चुका है कि जो पदार्थ इन द्रबो में मिलाए जाते हैं वे शराब की ही तरह स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक़ है.इससे सिद्ध हो जाता है कि मीडिआ किन मूल्यो को स्थापित करता है.मीडिआ जैसे माध्यम का सामाजिक मूल्यो पर गहरा प्रभाव पड़्ता है.अब हम समझ गए होंगे कि सामाजिक मूल्यों का जो पतन हो रहा है वह कहाँ से संचालित है और उसे बदलने के लिए हमें क्या बदलना होगा.

Saturday 1 January 2011

स्थानीय लोकतंत्र की हक़ीक़त

स्थानीय लोकतंत्र की हक़ीक़त
कल ब्लाक प्रमुख का चुनाव हो गया.जो ब्लाक प्रमुख जीते हैं उन्होने एक-एक क्षेत्र पंचायत सदस्य(B.D.C)को3 लाख से 5 लाख तक दिए हैं .अभी ज़िला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव हुआ हैं जिसमे एक-एक ज़िला पंचयत सदस्य की क़ीमत 25लाख से 60 लाख तक रही.ज़िला पंचायत अध्यक्ष य ब्लाक प्रमुख का चुनाव पूरी तरह गाय- भेंस की खरीद-फ़रोख्त की तर्ज़ पर होता है.ऐसे में अमित भादुडी जैसे अर्थशास्त्रियो को सोचने की ज़रूरत है जिनका कहना हैं -राजसत्ता की नकामी की सबसे अहम वजह रही हैं राजकीय तंत्र का केंद्रीक्रुत दफ्तर्शाहीकरण और स्थानीय लोक्तंत्र पर भरोसे का अभाव मौजूदा राजकीय तंत्र की जगह वैकल्पिक संस्थानिक इंतज़ामात तैयार करने होंगे जो स्थानीय सरकारो,पंचायतो और उनके नीचे की ग्राम सभाओ के ज़रिये काम करे. अगर उन्हें सही ढंग से शक्तिया दी जाए तो यह वैकल्पिक संस्थान ग़रीबो को वेकल्पिक सेवाए मुहैया करने में राजसत्ता की नकामी की समस्या का राजनीतिक समाधान पेश करने में काफ़ी कारगर साबित होगा.दर अस्ल ग़रीबो के मामले मे राजसत्ता की अक्षमता और बाज़ार की निष्ठुरता के बीच के अंतर्विरोध को सुलझाने की ओर बढ़्ने का यही एकमात्र तरीक़ा नज़र आता हे."
सोचने की बात है स्थानीय ग्रामसभा हो ज़िला पंचायत हो य केंद्रीयक्रुत राजसत्ता संसद य विधानसभा उनके मूलचरित्र मे क्या कोई अंतर है?अभी प्रधानी के इलेक्शन मे एक-उम्मीदवार ने 5 लाख से लेकर 25 लाख तक खर्च किए हैं .