Wednesday 31 August 2011

अन्ना आंदोलन के सबक


अन्ना और उनकी सिविल सोसाइटी द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ा गया आंदोलन कुछ समझौतों के साथ लोकपाल बिल पर बनी सहमति के साथ समाप्त हो गया. इस आंदोलन के निहितार्थ जो भी हों पर एक बात स्पष्ट है कि इस तथाकथित आंदोलन ने उन लोगों को काफ़ी कुछ सोचने का मौका दिया जो समाज में परिवर्तन चाहते हैं. इस दमनकारी व्यवस्था को बदलना चाहते हैं.
इस आंदोलन के समर्थन में जो तर्क दिए गए उन पर विचार करना समीचीन होगा. लोगों का मानना है कि यह एक राष्ट्रीय आंदोलन था. जनता के हक़ में लड़ी गई एक लड़ाई थी. राष्ट्रीय स्तर पर जो जन आक्रोश देखा गया है उसने बेहतर समाज का सपना देखने वालों के दिल में एक उम्मीद जगा दी है कि जो मध्य वर्ग समाज के बारे में कभी कुछ नहीं सोचता वह किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर इकट्ठा हो सकता है और ज़रूरत पड़ने पर सड़क पर उतर सकता है. कुछ लोग इस आंदोलन से इस लिए भी बहुत आशान्वित हैं कि उनका मानना है लंबे समय से जनता में कोई आंदोलन खड़ा नहीं हुआ है और यह आंदोलन इस जड़ता को तोड़ेगा और समाज में जनांदोलनों के लिए ज़मीन तैयार करेगा. कुछ आशावादी लोगों को तो इससे भी अधिक ऐसी उम्मीद थी कि जनाक्रोश उभर आया है और संभव है कि आंदोलनकारी भ्रष्टाचार से आगे अपनी माँग रखेंगे और संभव है यह वास्तव में राष्ट्रीय आंदोलन का रूप ले सकता है.
इस आंदोलन के मूल्यांकन में जिन बिंदुओं पर मैं विचार करूँगा वे हैं - इसका नेतृत्व, आंदोलन के सहयोगी, आंदोलनकारी जनता, वे परिस्थितीयां जिन्होंने आंदोलन को जन्म दिया और आंदोलन में अपनाई गई रणनीति , इस आंदोलन के सबक विशेषकर प्रगतिशील लोगों के लिए.
किसी भी आंदोलन के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि उसका नेतृत्व किन हाथों में है. छोटे से लेकर विशाल आंदोलनों तक का इतिहास बताता है कि अगर आंदोलन का नेतृत्व सही हाथों में न हो तो आंदोलन कभी अपनी सही परिणति तक नहीं पहुँच सकता. ट्रेड यूनियन द्वारा किए जाने वाले तमाम आंदोलनों के बारे में ऐसी धारणा बनती रही है कि नेतृत्व मेनेजमेंट के हाथों बिक जाता है. आंदोलन, नेतृत्व की मंशा में खोट या नेतृत्व की समझ में कमी के कारण असफल होते रहे हैं.
अन्ना का आंदोलन का नेतृत्व जो लोग कर रहे हैं उन पर नज़र डालने से पता चलता है कि आंदोलन का नेतृत्व जन पक्षधर लोगों के हाथ में नहीं रहा है. अन्ना को इस आंदोलन का सबसे बड़ा आदर्श के रूप में पेश किया गया है लेकिन अन्ना की कोई राजनीतिक या सामाजिक समझ है ऐसा नहीं लगता. वे लोकपाल के माध्यम से भ्रष्टाचार समाप्त करने की बात कर रहे हैं पर उन्हें यह भी नहीं पता है कि समाजिक व राजनीति व्यवस्था की मूल में भ्रष्टाचार कैसे समाया हुआ है, कानून अपना काम कैसे करते हैं और वे भ्रष्टाचार को रोकने में क्यों असफल रहते हैं.
दर-अस्ल अन्ना के पिछले इतिहास से पता चलता है कि अन्ना गाँव में मुखिया-प्रधान स्तर के नेता रहे हैं और उन्होंने वैसे ही सामंती किस्म के सुधार अपने गाँव रालेगाँव सिद्धि में किए हैं(The Making of Anna Hazare,www.kafila.org पर मुकुल शर्मा ने इस गाँव के अध्ययन पर विस्तार से रिपोर्ट दी है), वे एक RTI एक्टिविस्ट रहे हैं. और महाराष्ट्र सरकार के कुछ मंत्रियों के खिलाफ़ सूचनाएं इकट्ठी कर उनके खिलाफ़ भ्रष्टाचार की जाँच करवाने जैसी लड़ाइयां उन्होंने लड़ी हैं. लेकिन समाज से भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए ज़रूरी है आपको समाज और राजनीति का समुचित ज्ञान हो, कानून के असफल रहने का ज्ञान हो. लोकपाल के लिए अनशन पर बैठना है इसके अलावा अन्ना के पास न तो आंदोलन चलाने की कोई रणनीति थी और न समाज और राजनीति का कोई ज्ञान. आज तक किसी ने अन्ना के विचार कहीं पढ़े हों कि वे समाज में क्या करना चाहते हैं. बस हवा में भ्रष्टाचार समाप्त करना चाहते हैं.
दर-अस्ल इस पूरे ताम झाम में अन्ना का इस्तेमाल तो एक प्रतीक के रूप में किया गया है. इसका असल नेतृत्व तो तथाकथित सिविल सोसाइटी रही है. यों इस सिविल सोसाइटी में मेधा पाटेकर जैसे कुछ सामाजिक कार्यकर्ता भी जुड़े रहे हैं परंतु जो मुख्यतः नेतृत्व की भूमिका में रहे हैं उनकी मंशा और और चरित्र को लेकर विचारणीय सवाल उठते रहे हैं. मुख्य नेतृत्व कर्ता अरविंद केजरीवाल ने पिछले 3 साल में अकेले फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन से ही 4 लाख डॉलर लिए हैं और तमाम अन्य कंपनियों से वे अपने NGO को करोडों रुपए लेते हैं. दूसरे नेतृत्वकारी लोगों में भी अधिकांशतः इसी तरह NGO से जुड़े लोग हैं जिनका ऐसा इतिहास भी नहीं रहा है कि वे समाज के हित में सोचने वाले लोग हैं. फिर मीडिआ के सामने NGOs को लोकपाल के दाइरे में लाने के सवाल पर केजरीवाल व प्रशांत भूषण की जो प्रतिक्रिया रही वह इस आशंका को सही सिद्ध करती है कि अपने आपको सिविल सोसाइटी कहने वाले NGO चलाने वाले ये लोग, जो लोकपाल के नाम पर भ्रष्टाचार खत्म करने की बात कर रहे हैं वास्तव में NGOs और कॉर्पोरेट के हितों के बारे में सोचने वाले लोग हैं.
इस आंदोलन में सिविल सोसाइटी के अलावा प्रमुख भूमिका निभाई मीडिआ और भाजपा ने. अप्रेल में जब अनशन शुरू हुआ था तब से लेकर अब तक मीडिआ ने जिस तरह की भूमिका निभाई है वह आश्चर्यचकित करने वाली है. अप्रेल के 3 दिन के अनशन को आज़ादी के बाद की सबसे बड़ी लड़ाई और अगस्त के अनशन को आज़ादी की दूसरी लड़ाई मीडिआ ने प्रचारित किया है. सच तो यह है कि जो कॉर्पोरेट मीडिआ आम जनता की हमेशा अनदेखी करता है उसने इस आंदोलन को लांच करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस आंदोलन के सबसे बड़े सहयोगी R.S.S और भाजपा रहे हैं. अब तो यह भी स्पष्ट हो गया कि रामलीला मैदान में भीड़ के लिए खाने का सामान जुटाने में
R.S.S के संगठन सक्रिय रहे हैं. अखबारों में खबरें आई हैं कि ABVP ने ज़बर्दस्ती स्कूल- कॉलेज बंद करा कर आंदोलन के रूप में भीड़ उपलब्ध कराई है. देशभर में भाजपा कार्यकर्ता सक्रिय रहे और अखबारों की ख़बरों से भी इस बात की पुष्टि आसानी से हो जाती है. ऐसा संभव है कि पहले से केजरीवाल और भाजपा में इस मुद्दे पर बात हुई होगी कि रामलीला मैदान में जुटने वाली भीड़ कैसे मेनेज करनी है. कुछ लोगों को लग सकता है कि आंदोलन से राजनीतिक फ़ाइदा उठाने के लिए भाजपा इस आंदोलन से जुड़ गई होगी. पर ऐसा नहीं है. जिस तरह का तालमेल शुरू से सिविल सोसाइटी और भाजपा के बीच रहा है और भाजपा एवं R.S.S ने सड़कों पर भीड़ जुटाने में मदद की है उससे लगता है कि सब कुछ पूर्व निर्धारित रणनीति के तहत था और यह बात इस आंदोलन पर सवाल खड़े करती है. यह स्पष्ट है कि भाजपा का भ्रष्टाचार या लोकपाल से कुछ लेना देना नहीं है. उसने अपने शासन काल में वह बिल भी पास नहीं किया जिसे जोकपाल कहा जा रहा है. अनशन तुड़वाने के वक़्त बुलाई गई सर्व दलीय बैथक में उसने अपना रुख स्पष्ट कर दिया जो कॉग्रेस से भिन्न नहीं था. गुजरात में मोदी लोकपाल की नियुक्ति के विरुद्ध कोर्ट के चक्कर काट रहे हैं. इतना सब होने के बावजूद भाजपा ने आंदोलन को इतना सहयोग क्यों किया? क्या इसलिए कि उसे पता था कि इस आंदोलन कि अंतिम परिणति क्या है, और अंततः यह शासक वर्गीय हितों के खिलाफ़ नहीं जाएगा.
यह बात ठीक है कि भाजपा कार्यकर्ताओं का भीड़ जुटाने में काफ़ी योगदान था फ़िर भी इस संपूर्ण भीड़ और उसके समर्थकों पर विस्तार से बात करना उचित होगा. रामलीला मैदान में जो भीड़ जुटी, देशभर के विभिन्न कस्बों व शहरों में लोग सड़कों पर देखे गए, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर लोगों ने आंदोलन का समर्थन किया तो क्या वास्तव में समाज का इतना बड़ा वर्ग भ्रष्टाचार समाप्त करना चहता है? यह मुद्दा उसकी प्राथमिकता में था. सवाल यह भी उठता है कि क्या यह जनांदोलन था? जैसा कि कुछ बुद्धिजीवी भीड़ को देख कर कह रहे हैं कि भ्रष्टाचार को लेकर जनता में ज़बर्दस्त आक्रोश है और यह जनांदोलन उसकी अभिव्यक्ति है. अगर यह जनाक्रोश था तो यह कैसा आक्रोश था जो अन्ना की अनशन के साथ पैदा हुआ और अन्ना के अनशन तोड़ने के साथ ही पटाखे छुड़ाते हुए दीवाली मनाते हुए बुझ गया. इतना नियंत्रित जनाक्रोश कि लाखों की संख्या में लोग सड़कों पर उतर आएं और 12 दिन उत्सव सा मना कर, पटाखे छुड़ा कर घर चले जाएं, न आक्रोश का कोई लक्षण 16 से पहले दिखाई दे और न 28 के बाद. इस बीच ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जनाक्रोश को हटाने वाला हो. अन्ना की यह ज़िद कि प्रधानमंत्री व उच्च न्यायपालिका को लोकपाल के दाइरे में लाओ और उन्होंने वह ज़िद छोड़ दी, अनशन खत्म हुआ सरकार, सरकारी की जगह गैर सरकारी(NGO) लोकपाल पेश करने पर राजी हो गई. एक स्थानीय मुद्दे पर जनता में जनाक्रोश भड़क जाए तो प्रशासन के हाथ- पैर फूल जाते हैं और पूरे देश में लाखों लोगों में जनाक्रोश भड़का हुआ हो, जनता सड़कों पर हो, आक्रोश का कोई चिह्न न 16 से पहले और न 27 के बाद दिखाई दे, इतने विशाल राष्ट्र व्यापी जनाक्रोश की इतनी उत्सवी और नियंत्रित अभिव्यक्ति शायद इतिहास में न मिले.
यह सच है कि 90 बे बाद जिस तरह आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ उससे पूँजी की लूट हुई है वहीं मध्य वर्ग की स्थितियों में कुछ बदलाव भी आए हैं. पर विश्व अर्थ व्यवस्था के महामंदी में फँसने का असर मार्केट पर पड़ा है और चारों तरफ़ बढ़ती मँहगाई व सरकार द्वारा हर महीने पेट्रौल की क़ीमत बढ़ा देने से सबसे अधिक मध्य वर्ग प्रभावित हुआ है. जैसी कि मध्य वर्ग की प्रवृत्ति होती है जिसे गाड़ी की ज़रूरत नहीं है फिर भी अगर नई नहीं ले पा रहा तो किस्तों पर पुरानी गाड़ी ही खरीद रहा है, दूसरे तरह के चोचले भी उसकी जीवन परिस्थितियों को कठिन बना रहे हैं. ऐसे में दिन पर दिन बढ़ती मँहगाई स्वाभाविक रूप से उसमें गुस्सा को बढ़ावा देती है. लेकिन यह गुस्सा कठिन होती जीवन परिस्थितियों से पैदा हुआ गुस्सा है. यह गुस्सा किसी सामाजिक बदलाव को लेकर नहीं है और 12 दिन चले अनशन के साथ बिना कुछ हासिल हुए पटाखों के साथ दीवाली मनाते हुए शांत भी हो गया. और न इस वर्ग की संघर्ष को आगे ले जाने की प्रवृत्ति है. जिस तरह लोग मोटरसाइकिलों से भीड़ की शक्ल में निकलते थे उससे तीन गुने लोग तमाशाई के रूप में उन्हें देख रहे होते थे. रामलीला मैदान में शराब पीकर जो हुड़दंग हुआ, BBC पर लंपटपन की जो खबरें छपी वे इतनी छोटी बात होतीं तो केजरीवाल को मीडिआ में यह स्पष्टीकरण नहीं देना पड़ता कि ये लोग आंदोलन का हिस्सा नहीं हैं. ये सारे लक्षण एक मध्य वर्गीय जनांदोलन को नहीं एक मध्य वर्गीय भीड़ को प्रदर्शित करते हैं.
दलित विमर्शकार इस आंदोलान को सवर्ण इलिट लोगों का आंदोलान कह रहे हैं उसकी वजह यह है कि RSS के साथ सवर्ण वर्ग जुड़ा है और इसमें एक वर्ग जो बेहद कुंठित है और उसके मन में दलित व आरक्षण के प्रति गहरी नफ़रत है. इस वर्ग ने इंडिया अंगेस्ट करप्शन के फेसबुक पेज से लेकर विभिन्न मंचों से आरक्षण का विरोध किया ओबीसी व दलितों को गालियां दीं. एक तरह से उन्होंने यह प्रदर्शित करना चाहा कि दलित समाज का उभरना ही भ्रष्टाचार है.
भाजपा और NGOs ने यह किया कि मध्य वर्ग के इस गुस्सा को मीडिआ के साथ मिलकर बहुत कुशलता से मेनेज कर लिया. और जितनी उसे ज़रूरत थी उतना उसे यूज कर लिया. उसने टेक्नोलोजी का उपयोग करते हुए लोगों को मिस कॉल मारने की सहूलियत उपलब्ध कराई. फिर उस न. पर भावुक किस्म के मेसेज भेजे. जैसे- भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाना है, भ्रष्टाचारी अब बच नहीं सकते, 74 वर्षीय अन्ना आपके बच्चों के लिए लड़ रहे हैं. अगर आज नहीं जागे तो बहुत देर हो जाएगी, अन्ना आपके लिए इतना कर रहे हैं और आप उनके लिए सड़क पर नहीं आ सकते, आदि-आदि. लोगों को नैतिक अपराधबोध सा भी हुआ कि अन्ना इतना कर रहे हैं और हम एक मिस कॉल भी नहीं मार सकते. और इस तरह एक श्रंखला सी बनती चली गई. इसका प्रभाव यह हुआ कि जिन लोगों की वजह से ही इस समाज में भ्रष्टाचार है वे भी मिस कॉल मार रहे थे और टोपी पहनकर यह चिल्ला रहे थे मैं अन्ना हूँ.
जो लोग यह मान रहे हैं कि इस आंदोलन ने देश में जनांदोलनों की ज़मीन तैयार की है, जो बड़े बड़े नेता नहीं कर पाए वह 74 वर्षीय अन्ना ने कर दिखाया या इससे जनता की राजनीतिक चेतना का विकास हुआ है वे लोग इस बात को समझने से इंकार करना चाहते हैं कि जनांदोलन या सामाजिक बदलाव का कोई विज्ञान भी होता है.इस देश में कोई भी व्यक्ति अन्ना बन सकता है अगर पूँजीपति वर्ग उसे अन्ना बनाना चाहे, अपना मीडिआ पूरी तरह उसकी सेवा में लगा दे. सिर्फ़ 3 दिन के अनशन के लिए 82.87668 लाख रु. हाथों हाथ इकट्ठे कर दे. जो लोग इस जनांदोलन से सीखने की बात कर रहे हैं, उन्हें समझना चाहिए कि जो अन्ना कुछ लोगों में सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में जाने जाते थे वे सिर्फ़ 3 दिन की अनशन में देश के महानायक सिद्ध कर दिए गए, केजरीवाल और उनकी NGO टीम कभी जनता के बीच नहीं गई और सिर्फ़ मोबाइल मेसेज के द्वारा ही उसने 16 अगस्त की सुबह राष्ट्र व्यापी जनांदोलन शुरू कर दिया और उसी के आह्वान पर आंदोलनकारी जनता ढोल नगाड़े बजाती हुई घर लौट गई. जो लोग यह कह रहे हैं कि इससे जनता की राजनीतिक चेतना का विकास हुआ है तो उन्हें समझना चाहिए कि हर आंदोलन जनता की राजनीतिक चेतना विकसित नहीं करता है, वैसे ही जैसे मंदिर आंदोलन ने जनता की चेतना पर प्रति गामी असर डाला जिससे बाहर आने में उसे 10 साल लगे. जनता की चेतना को विकसित करना नेतृत्व का कार्यभार होता है. इसी लिए आंदोलन शुरू होने से लेकर अंत तक पर्चे बाँटना, पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित करना, पुस्तकें उपलब्ध कराना जनांदोलन का अभिन्न हिस्सा होते हैं. इस जनांदोलन में अॅग्रेजी में एक बिल ड्राफ़्ट करने के अलावा नेतृत्वकारी NGOs ने क्या किया? किरण बेदी, केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और प्रशांत भूषण ये चार इस आंदोलन के मुख्य नेतृत्वकर्ता हैं. किरण बेदी, केजरीवाल और मनीष सिसोदिया के NGO करोडो रु. कंपनियों से लेते हैं. शांति भूषण पर सस्ते में सरकारी फ़्लैट कब्जाने के आरोप थे, अब यह भी सिद्ध हो गया है कि मुलायम और अमर सिंह के साथ उनकी बातचीत की सीडी सही है जिसमें वे सभी जजों के भ्रष्ट होने की बात कर रहे हैं और कह रहे हैं उनका पुत्र प्रशांत भूषण जजों को मेनेज कर लेगा. लोग इस भ्रष्ट सिविल सोसाइटी के बारे में बात नहीं कर रहे हैं और फ़ेसबुक पर एक चित्र डाउनलोड करके उसके नीचे लिख रहे हैं कि केजरीवाल और सिसोदिया आंदोलन के समय प्लेटफॉर्म पर सोए और ऐसा उनके जैसे महन त्यागी ही कर सकते हैं.
इस तरह देखा जाए तो इस आंदोलन ने लोगों में भावुक आदर्श, अतार्किक राष्ट्रवादी बातों को बढ़ावा देकर प्रतिगामी आंदोलन का काम किया है.

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